विवेकानंद को गांधी से ‘महान’ क्यों मानते थे अंबेडकर?

विवेकानंद
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क्या आप दलित होते हुए भी गांधी का गुणगान करते हैं?

क्या आपकी नजर में भी गांधी ने ही देश को आजादी दिलाई?

क्या आप गांधी को मानते हुए  बाबा साहेब के विचारों को नजरअंदाज करते हैं?

अगर ऐसा है…तो संभल जाइए..गांधी महान नहीं थे. गांधी ने दलितों के साथ विश्वासघात किया…गांधी दलित हितैषी होने का दिखावा करते थे…गांधी को लेकर बाबा साहेब की सोच यहीं थी. कई मसलों पर बाबा साहेब और गांधी के बीच में मतभेद थे. वह गांधी के कपट को अच्छे से समझते थे..शायद यही कारण था कि वह गांधी को महात्मा नहीं मानते थे…आजादी के बाद गांधी को सदी का महान बताया गया…उन्हें कई पदवियां दी गई…लेकिन बाबा साहेब गांधी नहीं, विवेकानंद जी को सदी का महान बताते थे..इसके पीछे उन्होंने कई सार्थक तर्क भी दिए थे..इस लेख में हम आपको बताएंगे कि बाबा साहेब, गांधी के आगे विवेकानंद को तवज्जों क्यों देते थे.

भारतीय समाज सुधारक विवेकानंद और डॉ. अंबेडकर 

विवेकानंद और डॉ. अंबेडकर दोनों ही भारतीय समाज के विकास और समाजिक सुधार के पक्षधर थे, हालांकि उनके वैचारिकता में अंतर था. विवेकानंद ने विश्व में भारतीय धर्म और संस्कृति का प्रचार किया, जबकि डॉ. अंबेडकर ने समाज में सामाजिक और आर्थिक समानता की दिशा में काम किया. उन्होंने समाज में जातिगत असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़ी और समाजिक विवादों को समाप्त करने के लिए संघर्ष किया. कई मायने में वैचारिक मतभेद होने के बावजूद विवेकानंद और डॉ अंबेडकर एक पृष्ठ पर ही नजर आते हैं..

आध्यात्मिकता: विवेकानंद ने भारतीय आध्यात्मिकता को एकता में संगठित करने को बड़ी महत्वपूर्णता दी, जो धार्मिक समानता और एकता पर आधारित थी. वे धर्म के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध थे और सभी धर्मों के साथ समान भाव रखते थे. वहीं, डॉ. अंबेडकर ने भारतीय समाज की आध्यात्मिक एकता की पुनर्निर्माण की आवश्यकता को महत्व दिया. उन्होंने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ उत्कृष्टता को प्रोत्साहित किया और सभी वर्गों के साथ समानिकता की ओर अग्रसर होने की महत्वपूर्णता बताई.

आर्य नस्ल सिद्धांत: विवेकानंद ने आर्य नस्ल सिद्धांत को अस्वीकार किया और सभी मानवों के समानता में विश्वास किया. उन्होंने आर्य संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्त्वों को प्रमोट किया और उनके योगदान की प्रशंसा की. वहीं, डॉ. अंबेडकर ने आर्य नस्ल सिद्धांत के खिलाफ विरोध किया और उसके विचारों को ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई में उपयोगी माना. उन्होंने वर्ण व्यवस्था को खत्म करने के लिए समाज में सामाजिक सुधार के लिए योजनाएं बनाई. ये दोनों ही शख्स नस्लीय भेदभाव के खिलाफ लड़ते थे और समाज में समानता और सामाजिक न्याय की प्राथमिकता को स्वीकार करते थे.

संस्कृत का महत्व: विवेकानंद ने संस्कृत को भारतीय आदर्शों की मातृभाषा मानकर उसके महत्व की प्रशंसा की. उनका मानना था कि संस्कृत भाषा उद्यम, आदर्श और विचारों की धारा को प्रकट करती है. वहीं, डॉ. अंबेडकर ने संस्कृत की शिक्षा में असमानता की बात की लेकिन उन्होंने उसके उत्कृष्टता को माना और वर्ण व्यवस्था के खिलाफ उपयोगी माना. बाबा साहेब तो संस्कृत को भारत की राजभाषा बनाने की कोशिश में लगे हुए थे लेकिन वह प्रस्ताव पास नहीं हो पाया. ये दोनों ही महान व्यक्तित्व संस्कृत भाषा का भारतीय संस्कृति के साथ संबंध की महत्वपूर्णता को मानते थे लेकिन दोनों के दृष्टिकोण में अंतर था.

धर्मांतरण: डॉ. भीमराव अंबेडकर ने धर्मांतरण को महत्वपूर्ण माना और बौद्ध धर्म को अपनाया. उन्होंने यह माना कि बौद्ध धर्म सामाजिक और व्यक्तिगत समृद्धि की दिशा में माध्यम बन सकता है. वहीं, विवेकानंद ने धर्मांतरण को प्रमोट नहीं किया बल्कि सनातन धर्म के मूल्यों के प्रति उनका समर्थन किया. विवेकानंद मानते थे कि आध्यात्मिकता और नैतिकता का संकेत सनातन धर्म में है और भारत को इसी माध्यम से समृद्धि मिल सकती है. ये दोनों ही महामानव धर्म के महत्व को मानते थे लेकिन धर्मांतरण की दिशा में उनके दृष्टिकोण में अंतर था. बाबा साहेब ने धर्म को समाजिक सुधार का साधन माना, जबकि विवेकानंद ने आध्यात्मिकता को मानवता की उन्नति का माध्यम माना.

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