History of national flag : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में तिरंगे ने एकजुटता और संघर्ष का प्रतीक बनकर अहम भूमिका निभाई। यह केवल एक झंडा नहीं, बल्कि भारतीयों की भावनाओं, आकांक्षाओं और संकल्पों का प्रतीक था। 15 अगस्त 1947 को जब भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, तब तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया गया। लेकिन इसे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में मान्यता मिलने तक का सफर कई विवादों और ऐतिहासिक घटनाओं से भरा हुआ था।
आज़ादी की लड़ाई में तिरंगे का योगदान
आजादी से पहले तिरंगे ने क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को संघर्ष के लिए प्रेरित किया। 1906 में पहली बार झंडे का स्वरूप देखने को मिला। इसमें हरे, पीले, और लाल रंग की तीन पट्टियां थीं। इसके बाद 1921 में पिंगली वेंकैया ने तिरंगे का डिजाइन तैयार किया। महात्मा गांधी ने इसे कांग्रेस के झंडे के रूप में चुना, जिसमें केसरिया, सफेद और हरे रंग की पट्टियां थीं और बीच में चरखा बना हुआ था।
संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज पर चर्चा – आजादी से कुछ हफ्ते पहले, 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा की बैठक बुलाई गई। इस बैठक का मुख्य उद्देश्य भारत के राष्ट्रीय ध्वज के स्वरूप पर अंतिम फैसला लेना था। कई घंटे की चर्चाओं और विचार-विमर्श के बाद, तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने का निर्णय लिया गया। इसमें केसरिया रंग साहस और बलिदान, सफेद रंग शांति और सच्चाई, और हरा रंग समृद्धि और उर्वरता का प्रतीक है। बीच में अशोक चक्र को जगह दी गई, जो धर्म और प्रगति का प्रतीक है।
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चरखे से अशोक चक्र तक का सफर
महात्मा गांधी द्वारा चुने गए तिरंगे में चरखा था, जो आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन का प्रतीक था। यह गांधीजी की पहचान बन चुका था। इतिहासकार डोमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स ने अपनी पुस्तक ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ में लिखा है कि चरखा गांधीजी की विचारधारा और अहिंसा के हथियार का प्रतीक था।
लेकिन स्वतंत्रता के करीब आते ही कई नेताओं ने चरखे को राष्ट्रीय ध्वज का हिस्सा बनाए रखने पर सवाल उठाए। उनका मानना था कि चरखा अब अतीत की बात हो गई है और यह राष्ट्रीय ध्वज के लिए उपयुक्त प्रतीक नहीं है। इसी दौरान अशोक चक्र को ध्वज में शामिल करने का सुझाव दिया गया। अशोक चक्र, जो धर्म और न्याय का प्रतीक है, मौर्य साम्राज्य की समृद्ध परंपरा को दर्शाता है।
जब गांधीजी को इस बदलाव की जानकारी मिली, तो वह बेहद दुखी हुए। उन्होंने कहा, “यह डिजाइन कितना ही सुंदर क्यों न हो, मैं इस झंडे को सलामी नहीं दूंगा।”
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तिरंगे का अंतिम स्वरूप
तिरंगे में केसरिया, सफेद और हरे रंग की तीन समान चौड़ाई वाली पट्टियां हैं। बीच में स्थित अशोक चक्र में 24 तीलियां हैं, जो जीवन के 24 गुणों का प्रतीक हैं। इसे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में 15 अगस्त 1947 को अपनाया गया। यह ध्वज न केवल भारतीय जनता की आकांक्षाओं को दर्शाता है, बल्कि उनकी एकता और अखंडता का भी प्रतीक है।
तिरंगे से जुड़े विवाद और गौरव
तिरंगे को लेकर विवाद केवल चरखे और अशोक चक्र तक सीमित नहीं थे। 1906 से 1947 के बीच झंडे के स्वरूप में कई बदलाव हुए। 1907 में आया झंडा सबसे ऊपर केसरिया, बीच में पीली और सबसे नीचे हरी पट्टी के साथ था। 1917 और 1931 में भी झंडे के स्वरूप में बदलाव हुए। 1931 में झंडे को पहली बार तिरंगे का नाम मिला।
हालांकि, स्वतंत्रता संग्राम में जिस झंडे का उपयोग किया गया, उसे बदलने के निर्णय से कई लोगों की भावनाएं आहत हुईं। लेकिन अशोक चक्र के साथ तिरंगा आधुनिक भारत की प्रगति, शक्ति और साहस का प्रतीक बन गया।
राष्ट्रीय ध्वज के निर्माण में पिंगली वेंकैया का योगदान
पिंगली वेंकैया, जिन्होंने 1921 में तिरंगे का प्रारंभिक डिजाइन तैयार किया, एक स्वतंत्रता सेनानी, लेखक और भूगर्भशास्त्री थे। उनका सपना था कि भारत का अपना एक राष्ट्रीय ध्वज हो, जो देशवासियों को प्रेरित करे। उनका यह सपना 1947 में पूरा हुआ, जब तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया।
तिरंगा: गर्व और प्रेरणा का प्रतीक – आज तिरंगा केवल राष्ट्रीय ध्वज नहीं, बल्कि भारतीय एकता, स्वतंत्रता और गौरव का प्रतीक है। यह हर भारतीय के दिल में सम्मान और गर्व की भावना जगाता है। चाहे राष्ट्रीय पर्व हो या अंतरराष्ट्रीय मंच, तिरंगे की शान भारतीय पहचान को दर्शाती है।