नग्न परेड के पीड़ित: जातिवाद, अन्याय और सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ एक मां-बेटे का 18 साल का संघर्ष आज भी जारी

Dalit WOMEN, Naked Parade
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Naked parade victims : समय के साथ घाव भरते हैं, लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो जीवनभर दर्द और पीड़ा का हिस्सा बन जाती हैं। महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के छोटे से गांव तेलगांव में रहने वाली रमाबाई (बदला हुआ नाम) की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। 14 मार्च 2006 की उस भयावह घटना ने न सिर्फ उनके जीवन को बदल दिया, बल्कि उनके साथ हुए अन्याय ने समाज के जातिगत भेदभाव और पितृसत्तात्मक सोच को भी उजागर किया।

भयावह घटना और सार्वजनिक अपमान

2006 में रमाबाई और उनके सात वर्षीय बेटे को गांव के प्रभावशाली लोगों ने अवैध शराब और अन्य गतिविधियों की शिकायत के संदेह में निशाना बनाया। जांच में पुष्टि हुई कि रमाबाई ने वह शिकायत नहीं की थी, लेकिन उनकी स्वतंत्र सोच और आत्मनिर्भरता उन जातिवादी लोगों को खटक रही थी।
उनके इंकार के बावजूद, उन्हें दोषी ठहराते हुए सार्वजनिक रूप से नग्न परेड करवाई गई। यह क्रूरता यहीं नहीं रुकी; उनके बेटे को भी इसी तरह प्रताड़ित किया गया। इस घटना ने न केवल उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा छीन ली, बल्कि उनके जीवन को डर और असुरक्षा के अंधेरे में धकेल दिया।

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न्याय की लड़ाई: एक अधूरी कहानी

इस मामले में 2020 में अदालत ने नौ आरोपियों को दोषी करार देते हुए पांच साल की सजा सुनाई। लेकिन, ये सभी आरोपी जमानत पर रिहा हो चुके हैं और खुलेआम घूम रहे हैं। रमाबाई और उनका परिवार इन दोषियों से लगातार खतरा महसूस कर रहा है।
रमाबाई को 2006 के बाद पुलिस सुरक्षा दी गई थी, लेकिन 2023 में बिना किसी सूचना के यह सुरक्षा हटा ली गई।

रमाबाई की दुश्वारियां: रोजमर्रा की लड़ाई –  गांव में उन्हें और उनके परिवार को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। राशन और किराने का सामान लाने के लिए उन्हें 7 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। उनके बेटे अजय (बदला हुआ नाम) का कहना है,
हमारे पास न खेती है, न ही रोजगार। मजदूरी से जैसे-तैसे परिवार का गुजारा करते हैं। गांव के लोग हमसे कोई संबंध नहीं रखते। यहां तक कि दलित समुदाय के लोग भी दोषियों के दबाव में हमारे साथ खड़े होने से कतराते हैं।”

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अधिकार और मुआवजे की लड़ाई

2020 में कोर्ट ने रमाबाई को 2006 से 2020 तक के लिए मुआवजे का आदेश दिया था, लेकिन अब तक उन्हें कोई वित्तीय सहायता नहीं मिली। अब उन्होंने 1 करोड़ 10 लाख रुपये मुआवजे की मांग की है।
रमाबाई का कहना है,
यह मुआवजा मेरे और मेरे परिवार के साथ हुए मानसिक और सामाजिक अन्याय के लिए है। लेकिन आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई।”

समाज का रवैया और प्रशासन की उदासीनता – इस पूरी घटना में प्रशासन और समाज दोनों का रवैया चौंकाने वाला है। दलित अधिकार कार्यकर्ता नागसेन सोनारे का कहना है,
यह घटना दिखाती है कि कानून और पुलिस की मौजूदगी के बावजूद, जातिगत भेदभाव और अन्याय को चुनौती देना कितना मुश्किल है। हमने सरकार से मांग की है कि रमाबाई और उनके परिवार को शहरी क्षेत्र में पुनर्वासित किया जाए, लेकिन अब तक कोई कदम नहीं उठाया गया।”

जातिवाद और पितृसत्तात्मक सोच की वजह

रमाबाई के खिलाफ हुई क्रूरता जातिगत भेदभाव और पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा थी। उनके तलाक और आत्मनिर्भरता को उनके खिलाफ षड्यंत्र के सबूत के रूप में देखा गया। गुमनाम शिकायत का दोष उन पर मढ़ दिया गया और उन्हें “सबक” सिखाने के लिए शर्मनाक सजा दी गई।

आज भी जारी है संघर्ष

रमाबाई और उनका परिवार आज भी बहिष्कार और असुरक्षा के बीच जीवन व्यतीत कर रहा है। उनकी बेटी को आंगनबाड़ी भेजने और बेटे को बेहतर जीवन देने का सपना अभी भी अधूरा है। रमाबाई का कहना है,
हमारे पास कोई रास्ता नहीं है। सरकार और समाज दोनों ने हमारी दुर्दशा पर आंखें मूंद ली हैं।”

बदलाव की जरूरत

यह कहानी सिर्फ रमाबाई की नहीं है, यह समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव और अन्याय की गहरी सच्चाई को उजागर करती है। यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आज भी भारत में जातिगत भेदभाव और पितृसत्तात्मक सोच कितनी गहराई तक जमी हुई है।

 

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