Ambedkar and Independence – भारत में अधिकतर महान शख्सियतों के बारे में लोग दो खेमों में बंटे नजर आते हैं. एक वर्ग उनकी अच्छाइयों को गिनाता है, तो दूसरा उन पर उंगली उठाता है. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर भी इससे अछूते नहीं रहे. एक तरफ उन्हें संविधान निर्माता और दलित समाज का उद्धारक बताया जाता है तो दूसरी ओर कुछ लोग स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा न लेने की बात कहकर उनपर निशाना भी साधते हैं. लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में बाबा साहेब के हिस्सा न लेने वाली बात में कितनी सच्चाई है…आज के लेख में हम उसकी कलई खोलेंगे.
यहां समझिए क्या था पूरा मामला? Ambedkar and Independence
दरअसल, कांग्रेस की स्थापना के पूर्व से ही तमाम ऐसे गुट थे, जो अपने समाज के हित के लिए और उनके अधिकारों के लिए आवाज उठा रहे थे. कांग्रेस ने भी 1800 से 1929 तक ऐसी कई मांगे की. कांग्रेस के कई गुटों ने अपने समाज को अधिकार दिलाने के लिए आंदोलन तक किए. मराठा रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट और महार रेजिमेंट जैसी तमाम चीजें भी वहीं से निकल कर आई. वहीं, दूसरी ओर अंबेडकर भी अपने समाज के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे, उनकी बातें रख रखे थे, उनके लिए मांगे कर रहे थे…तो वह भी कहीं से गलत नहीं थे.
भीमराव अंबेडकर भारत के दलित, शोषित और वंचित तबके को अधिकार दिलाने के लिए लंबे वक्त से लड़ रहे थे. काफी कोशिशों के बाद साइमन कमीशन 1928 में डिप्रेस्ड क्लासेज को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने को राजी हुआ. दस्तावेज तैयार हुए और 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश सरकार ने दलितों को अलग निर्वाचन का अधिकार दिया. दलितों को दो वोट का अधिकार भी मिला. दो वोट सिस्टम में दलित एक वोट से अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से वे सामान्य वर्ग के किसी प्रतिनिधि को चुन सकते थे. गांधी जी दलितों के उत्थान के पक्षधर थे, लेकिन वो दलितों के लिए अलग निर्वाचन और उनके दो वोट के अधिकार के विरोधी थे. उन्हें लगता था कि इससे दलितों और सवर्णों के बीच खाई बढ़ेगी, हिंदू समाज बिखर जाएगा.
इसके विरोध में महात्मा गांधी ने पुणे के यारवादा जेल में आमरण अनशन करना शुरु कर दिया. देश के हर हिस्से में बाबा साहेब का विरोध शुरु हो गया. कई जगहों पर दलित बस्तियां भी जलाई गई. उसके बाद 24 सितंबर 1932 को गांधी और डॉ अंबेडकर के बीच पुणे के जेल में समझौता हुआ, जिसे हम पूना पैक्ट के नाम से जानते हैं. इसके बाद दलितों के अलग निर्वाचन क्षेत्र और दो वोट के अधिकार को वापस ले लिया गया. वहीं, दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 और केंद्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18 फीसदी कर दी गई. Ambedkar and Independence
गांधी का साथ नहीं दिया इसलिए रचा गया षड्यंत्र
वहीं, 8 मई 1933 को गांधी को जेल से छोड़ दिया गया. उसके बाद 1933 में ही महात्मा गांधी एक अगस्त को दोबारा गिरफ्तार हुए और 23 अगस्त को उन्हें छोड़ दिया गया. उसके बाद 1942 में गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ एक बार फिर तीव्र आंदोलन छेड़ दिया. 8 अगस्त 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैदान में हजारों की संख्या में भीड़ इकठ्ठा थी. मंच पर महात्मा गांधी समेत कांग्रेस पार्टी के गणमान्य बैठे हुए थे. अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति ने मंच से ‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित किया. जिसके बाद महात्मा गांधी ने मंच से यह संदेश दिया कि अब एक साथ खड़े होकर आवाज उठाने का वक्त अब आ गया है. मैं आपको एक मंत्र देना चाहता हूं जिसे आप अपने दिल में उतार लें, यह मंत्र है, करो या मरो. गांधी के इस भाषण ने पूरे देश को खड़ा कर दिया. ये एक ऐसा आंदोलन बन गया जिसने ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिलाकर रख दीं.
गांधी के ऐलान ने ब्रिटिश हुकूमत के अन्दर इतना डर पैदा कर दिया था कि आन्दोलन शुरू होते ही गांधी, नेहरु पटेल, आजाद समेत कई बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हो गई. गांधी को गिरफ्तार कर पूना के आगाखां पैलेस में नजरबंद किया गया. गांधी की गिरफ्तारी के बाद अब कमान जनता ने संभाल ली थी. संचार व्यवस्था को ठप कर दिया गया, रेल पटरियां उखाड़ दी गयी,जगह जगह पुलिस से मुठभेड़ हुई.हालत ये हो गयी थी कि जगह जगह बंदी जेल तोड़कर भागने लगे थे. गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में अंग्रेजी हुकूमत से नाराज़ होकर वायसराय की एग्जीक्यूटिव काउंसिल के लगभग सभी सदस्यों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था लेकिन बाबा साहेब ने यह कहते हुए इस्तीफा देने से मना कर दिया कि इस्तीफा देने से कोई लाभ नहीं होगा. अंबेडकर इस गतिरोध के लिए ब्रिटिश सरकार को दोषी ठहराने के पक्ष में भी नहीं थे. Ambedkar and Independence
अंबेडकर गांधी के विरोधी थे और इसलिए उन्होंने गांधी द्वारा शुरू किये गए आंदोलन में उनका साथ नहीं दिया. 1931 में दोनों नेताओं की मुलाकात के समय भी उनमें खटपट हुई थी. वहीं, पूना पैक्ट को लेकर भी जमकर बवाल मचा था. गांधी और अंबेडकर दोनों ही एक दूसरे के विपरीत दिशा में खड़े थे. बाबा साहेब ने गांधी के इस आंदोलन में उनका साथ नहीं दिया था, इसलिए उन्हें देश विरोधी कहा गया और यह बातें प्रचारित की गई कि बाबा साहेब ने आजादी की लड़ाई में भाग लेने से मना कर दिया.