दलित साहित्य में पहली आत्मकथा लिखने का रिकार्ड इनके नाम है

दया पवार
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14 अक्टूबर 1956 को डॉ. भीमराव आंबेडकर ने नागपुर की दीक्षाभूमि में औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उसी दिन हिंदू धर्म में अछूत के रूप में अपमानित किए जा रहे अधिकांश महार समुदाय ने विरोध स्वरूप महाराष्ट्र में हिंदू धर्म विरोधी आंदोलन के एक हिस्से के रूप में बौद्ध धर्म अपना लिया। इसके बाद दलित समुदाय के कई लेखक अपने अनुभवों को तलाशने वाली कृतियों के साथ आगे आए। परिणामस्वरूप राज्य बहुसंख्यक दलित साहित्य का जन्मस्थान बन गया। इसी स्थान पर एक ऐसे दलित लेखक का जन्म हुआ, जिसने अपनी आत्मकथा के माध्यम से पूरी दुनिया को दलितों पर हो रहे अत्याचारों की सच्चाई से अवगत कराया। यहां तक की उनके साहित्यिक योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार भी दिया। हम बात कर रहे हैं मराठी लेखक दया पवार की, जिन्हें दगड़ू मारुति पवार के नाम से भी जाना जाता है। उन्हें दलित साहित्य में पहली आत्मकथा लिखने के लिए जाना जाता है।

कौन है दया पवार

दरअसल, दया पवार का जन्म 15 सितंबर 1935 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के धामनगांव में एक महार परिवार में हुआ था। उनका जन्म उसी साल हुआ था जब बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था कि वह भविष्य में हिंदू धर्म छोड़ देंगे। 1956 में बाबा साहेब के साथ लाखों लोग हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध बन गये, महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में महार समुदाय के लोगों ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। इसीलिए 1935 में जन्मे पवार 1956 में बौद्ध बन गए। वे हिंदू धर्म की एक पहचान से दूसरी पहचान की ओर चले गए लेकिन जाति व्यवस्था जैसी अमानवीय व्यवस्था को वे अपने अंतिम क्षणों तक चुनौती देते रहे।

उनका प्रारंभिक जीवन बंबई के कमाठीपुरा से सटे इलाके कावाखाना में बीता, जहां वह अपने माता-पिता सहित पूरे परिवार के साथ दस बाई बारह फीट के कमरे में रहते थे। दीवार के सहारे तानी गईं रस्सियों पर पड़े कपड़े इन लकड़ी के बक्से के आकार के छोटे कमरों को दीवारों में बांटती थीं। उनके पिता बंदरगाह पर काम करते थे और मां सफ़ाईकर्मी थीं। कई लोगों के लिए शहरों में कम आय पर गुजारा करना आसान नहीं होता, लेकिन जब पिता की नौकरी छूट गई तो पूरे परिवार को गांव वापस जाना पड़ा। गांव में जीवन कैसे बीता और वे शहर कैसे आये, इसका पूरा विवरण उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा।

दया पवार की साहित्यिक यात्रा 1960 के दशक की प्रेम कविताओं से शुरू होती है। 1970 के दशक तक उन्होंने अपनी कविताओं के कारण बंबई के साहित्यिक समूहों के बीच अपनी जगह बना ली। इसी बीच वर्ष 1969 में उनकी कविताओं का एक संग्रह ‘कोडावाडा’ नाम से प्रकाशित हुआ जिसमें जाति और जेंडर के नजरिए से सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना पर कविताओं के रूप में चर्चा की गई थी। इसके लिए दया पवार को वर्ष 1974 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा साहित्य में पुरस्कृत किया गया। दया पवार चावड़ी और दलित जानिवा और विट्ठल के लेखक भी हैं। साहित्यिक कार्यों के अलावा, उन्होंने फिल्म डॉ. अम्बेडकर की पटकथा भी लिखी।

साल 1978 में पवार की आत्मकथा “बलूता” आती है। आत्मकथा में उन्होंने महाराष्ट्र में दलित महार समुदाय के सदस्य के रूप में बड़े होने के दौरान आने वाली कठिनाइयों का वर्णन किया है। इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख में अर्जुन डेंगले दया पवार को याद करते हुए कहते हैं, “उनकी आवाज़ पहाड़ी आवाज़ थी। वह गांव-गांव जाकर अपनी कविताएं क्षेत्रीय भाषाओं में गाते और लोगों को जाति-व्यवस्था के प्रति सवाल करने, विद्रोह करने को कहते और दलित मूवमेंट का हिस्सा बनने के लिए राज़ी कर लेते।”

“बलूता” गांव के हिंदू जाति समुदाय के सदस्यों द्वारा एक अछूतमहार से मांगी गई अवैतनिक मजदूरी थी। बलूताएक दलित के जीवन, एक समूह के रूप में उनके द्वारा सहे गए उत्पीड़न और दैनिक संघर्षों और उस समय अप्राप्य स्वायत्तता हासिल करने के उनके सामूहिक प्रयासों की कहानी बताती है। इस किताब को पाठकों के बीच काफी लोकप्रियता हासिल हुई और साथ ही इसकी काफी आलोचना भी हुई। दरअसल, इस आत्मकथा के प्रकाशन से मराठी साहित्यकारों में हलचल मच गई। उच्च जाति के लेखकों ने भाषाई रूप से अपरिपक्व‘, ‘आत्मकथा साहित्य के मौलिक मूल्यों पर आधारित नहीं हैजैसे तर्क देकर इस कृति को अस्वीकार करना शुरू कर दिया, लेकिन पवार और उनका जीवन आम लोगों के बीच व्यापक दर्शकों तक पहुंच गया। पवार ने लीक से हटकर भाषा का इस्तेमाल किया, इसीलिए उनकी आत्मकथा एक उपन्यास की तरह लगती है जिसमें दलित उत्पीड़न और संघर्ष की छाप है।

भारत सरकार ने 1990 में दया पवार को पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया। 10 दिसंबर 1996 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। दया पवार ने अपने पूरे जीवनकाल भारत में मौजूद सामाजिक और सांस्कृतिक असमानताओं को ठीक करने के लिए लड़ाई लड़ी।

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