कांशीराम जी ने मायावती को बनाया…मायावती को राजनीति के हर पैंतरे सिखाए…जिसके बदौलत वो उत्तर प्रदेश की 4 बार मुख्यमंत्री भी बनीं…मायावती ने भी अंत समय तक कांशीराम जी का ख्याल रखा…उनके नाम पर कई योजनाएं भी चलाई…लेकिन मायावती के अलावा भी कई ऐसे परिवार थे, जिनके साथ कांशीराम जी के रिश्ते काफी करीबी थे…एक महिला तो ऐसी थीं, जिन्हें कांशीराम पंजाब का सीएम तक बनाना चाहते थे.
कांशीराम पंजाब का सीएम किसे बनाना चाहते थे
जब भी कांशीराम जी पंजाब के जालंधर शहर में जाते, वह हमेशा **पी. डी. शांत** के घर पर रुकते थे। पी. डी. शांत एक सम्मानित व्यक्ति थे, जिन्होंने कांशीराम के संघर्ष और दलितों के लिए किए गए कार्यों में हमेशा साथ दिया। कांशीराम जी की राजनीतिक यात्रा चाहे शुरुआती दौर की हो या फिर उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद की, वह जब भी जालंधर जाते, शांत परिवार का आतिथ्य स्वीकार करते। खासकर, पी. डी. शांत की पत्नी हरदेव कौर का हाथ का बना खाना कांशीराम के लिए विशेष महत्व रखता था।
कांशीराम जी ने हरदेव कौर शांत को बेहद खास माना और उनके समर्पण तथा कार्यक्षमता को देखते हुए उन्हें पंजाब की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका देने का निर्णय किया। कांशीराम जी ने हरदेव कौर को दो बार विधायक चुनाव लड़ाया और उनकी यह इच्छा थी कि हरदेव कौर को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया जाए। कांशीराम का मानना था कि हरदेव कौर, जो समाज सेवा और दलितों के हक के लिए लड़ाई में हमेशा अग्रसर रहती थीं, पंजाब के दलित और पिछड़े वर्गों के लिए एक सशक्त नेतृत्व साबित हो सकती थीं।
कांशीराम और हरदेव कौर
यह किस्सा यह दर्शाता है कि कांशीराम न केवल दलित समाज के राजनीतिक हितों के लिए समर्पित थे, बल्कि व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों को भी महत्व देते थे। उनके और शांत परिवार के बीच का संबंध सिर्फ राजनीतिक नहीं था, बल्कि एक परिवारिक भावना से भी जुड़ा हुआ था। कांशीराम जी ने शांत परिवार के घर पर अपने प्रवास के दौरान घनिष्ठ संबंध स्थापित किया, और इस परिवार के समर्थन और सहयोग ने कांशीराम की राजनीति और उनके आंदोलन को मजबूत किया।
कांशीराम की दृष्टि हमेशा दलितों के सशक्तिकरण और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष पर केंद्रित रही और उन्होंने हमेशा योग्य और समर्पित व्यक्तियों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। हरदेव कौर को मुख्यमंत्री बनाने की उनकी इच्छा इस बात को दर्शाती है कि वह महिलाओं के सशक्तिकरण और दलित समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को कितना महत्व देते थे।
कांशीराम जी और पी. डी. शांत
कांशीराम जी और पी. डी. शांत के परिवार के बीच का यह किस्सा एक महत्वपूर्ण और अनसुना पहलू है, जो कांशीराम के संघर्ष और उनके संबंधों को एक नया आयाम देता है। यह दर्शाता है कि कैसे कांशीराम ने न केवल राजनीति में बल्कि व्यक्तिगत संबंधों में भी ईमानदारी और पारदर्शिता बनाए रखी। हरदेव कौर शांत को मुख्यमंत्री बनाने की उनकी इच्छा उनके सपनों और विचारधारा का एक हिस्सा था, जिसे उन्होंने हमेशा आगे बढ़ाने का प्रयास किया।
इनके अलावा एक अन्य दलित नेत्री वीरबाला जाटव का राजनीतिक सफर कांशीराम के मार्गदर्शन में शुरू हुआ और वे BSP के प्रमुख नेताओं में से एक बनीं। कांशीराम की सोच थी कि पंजाब में दलित राजनीति को मजबूत करने के लिए एक महिला नेतृत्व की आवश्यकता है, जो न केवल दलितों बल्कि पूरे राज्य की स्थिति को बेहतर कर सके। वीरबाला जाटव इस दृष्टिकोण में पूरी तरह फिट बैठती थीं, क्योंकि उनका सामाजिक और राजनीतिक योगदान बहुत मजबूत था।
कांशीराम के इस फैसले के पीछे उनकी दूरदर्शी सोच थी। वे मानते थे कि महिलाओं का नेतृत्व समाज में एक बड़ा बदलाव ला सकता है, खासकर दलित और पिछड़े वर्गों में। वीरबाला जाटव को मुख्यमंत्री बनाने का विचार कांशीराम की इसी सोच का परिणाम था।
मायावती को बनाने वाले कांशीराम
वहीं, मायावती को बनाने वाले कांशीराम ही थे.. दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे कांशीराम को ही मायावती को राजनीति में लाने का श्रेय दिया जाता है। मायावती दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई कर रही थीं। इसके साथ ही वो IAS की तैयारी भी कर रही थीं। DU में एक कार्यक्रम के दौरान मायावती ने मंच पर दलितों के उत्थान को लेकर एक भाषण दिया था। इस भाषण से प्रभावित होकर कांशीराम मायावती से मिलने गए। उन्होंने मायावती से उनके भविष्य की योजनाओं को लेकर पूछा तो उन्होंने कहा कि वो IAS बनना चाहती हैं। इस पर कांशीराम ने उन्हें समझाया कि IAS बनकर दलितों के लिए काम करना मुश्किल है, क्योंकि अधिकारियों को भी नेताओं की बात माननी होती है, इसलिए राजनीति में आओ। इसके बाद मायावती अपनी पढ़ाई छोड़ राजनीति में आ गईं।
उन्होंने ही मायावती को बीएसपी का चेहरा बनाया…लेकिन मायावती के अलावा ये परिवार भी रहे, जिनके साथ कांशीराम का रिश्ता काफी करीबी रहा. कांशीराम की सोच थी कि जिस तरह से मायावती ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों की आवाज़ को बुलंद किया, उसी तरह वीरबाला जाटव पंजाब में कर सकती थीं। लेकिन यह सपना कांशीराम के निधन के बाद पूरा नहीं हो सका, और वीरबाला जाटव की राजनीतिक भूमिका उतनी बड़ी नहीं बन पाई, जितनी कांशीराम ने चाही थी…