Dangavas Dalit massacre: राजस्थान के नागौर जिले के डांगावास गांव में 14 मई 2015 को घटी एक दिल दहला देने वाली घटना, जिसे डांगावास दलित हत्याकांड के नाम से जाना जाता है, ने पूरे देश में जातिवाद और सामाजिक असमानता की सच्चाई को उजागर कर दिया। इस घटना में पांच दलितों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी और यह हत्या एक ज़मीन विवाद के कारण हुई थी, जिसने जातिवाद को और हवा दी। यह घटना भारतीय समाज में जातिवाद के खिलाफ़ गंभीर सवाल उठाती है, जिसके परिणामस्वरूप न केवल हत्याएं हुईं, बल्कि दलितों के खिलाफ़ सामाजिक और शारीरिक हिंसा भी हुई।
यह दलित हत्याकांड मानवता की सभी हदों को पार कर गया। दलित महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न किया गया। दलित पुरुषों को ट्रैक्टर से कुचल दिया गया। इस घटना में गंभीर रूप से घायल हुए दलितों की आंखें भी फोड़ दी गईं।
घटना का विवरण
डांगावास गांव में दो दलित परिवारों के बीच भूमि को लेकर विवाद चल रहा था। इस विवाद ने जाट समुदाय के कुछ दबंगों को उकसाया, जिन्होंने दलित परिवारों पर हमला करने की योजना बनाई। 14 मई 2015 को सुबह 11 बजे, पंचायत की बैठक के दौरान, एक उग्र भीड़ ने दलित परिवारों के घरों को आग के हवाले कर दिया और उन्हें निशाना बनाकर हत्या कर दी। इस हमले में पांच लोगों की मौत हो गई, जबकि कई अन्य घायल हो गए। हमलावरों ने न केवल शारीरिक हमला किया, बल्कि दलितों के घरों को भी जलाकर नष्ट कर दिया। इस घटना ने एक जातिवादी हिंसा की भयंकर मिसाल पेश की, जिससे देशभर में आक्रोश फैल गया।
प्रारंभिक प्रतिक्रिया और जांच- डांगावास दलित संहार के बाद, स्थानीय दलित समुदाय और मानवाधिकार संगठनों ने इस घिनौनी घटना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। इसकी गंभीरता को देखते हुए राज्य सरकार ने मामले की जांच के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को आदेश दिया।
इतना ही नहीं, घटना के बाद सरकार ने सीबीआई जांच की संस्तुति की। मृतकों के परिजनों को 25-25 लाख रुपये और घायलों को 10-10 लाख रुपये देने, मृतकों के परिजनों को सरकारी नौकरी देने, विवादित जमीन पर धारा 45 की कार्रवाई रद्द करने और दलित परिवारों की जमीन पर चारदीवारी बनाने समेत 18 बिंदुओं पर सहमति बनी।
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव
डांगावास दलित संहार ने भारतीय समाज में जातिवाद और असमानता की समस्याओं को पुनः उजागर किया। इस घटना ने यह साबित कर दिया कि भारतीय समाज में जातिवाद अब भी जीवित है और इसकी जड़ें गहरी हैं। इस घटना ने भारतीय लोकतंत्र और संविधान की रक्षा करने वाली संस्थाओं की भूमिका पर सवाल उठाया। इसके अलावा, यह घटना यह भी दर्शाती है कि दलितों के खिलाफ हिंसा और अत्याचार की समस्या अब भी एक गंभीर मुद्दा है, और समाज में असमानता बनी हुई है। विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे पर बयान दिए, लेकिन कार्यवाही में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए गए।
घटना में पुलिस और प्रशासन की भूमिका
यह घटना उस समय हुई जब फिजी में जातिवाद के खिलाफ सख्त कानूनों का पालन किया जा रहा था। यह घटना खुद में एक उदाहरण थी कि किस तरह जातिवाद के कारण किसी भी नागरिक को अधिकार से वंचित किया जा सकता है। पुलिस का घटनास्थल पर देर से पहुंचना और बाद में पीड़ितों पर अतिरिक्त हमले करना यह बताता है कि पुलिस ने इस मुद्दे में अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई।
सीबीआई की जांच और फिरौती – इस मामले में सीबीआई ने जांच के दौरान 40 आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज किया और उनके खिलाफ ठोस साक्ष्य जुटाए। हालांकि, सरकार और न्यायपालिका से अपेक्षित तेजी से कार्रवाई नहीं हुई। एक साल तक कुछ आरोपी खुलेआम घूमते रहे, जिनमें से कुछ को दिसंबर 2019 में गिरफ्तार किया गया। सीबीआई ने आरोपियों से नार्को टेस्ट करवाने की सहमति ली थी, लेकिन न्याय की प्रक्रिया अब भी लंबी रही।