Uttarakhand: उत्तराखंड में जातिवाद की जड़ें: आज़ादी के 78 साल बाद भी दलित समुदाय के लिए संघर्ष जारी

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Uttarakhand: उत्तराखंड, जिसे देवभूमि कहा जाता है, अपनी प्राकृतिक सुंदरता, धार्मिक स्थलों और आध्यात्मिक ऊर्जा के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन इस खूबसूरत राज्य की एक स्याह हकीकत यह भी है कि जातिवाद और दलितों के साथ भेदभाव आज भी यहां मौजूद है। आज़ादी के 78 साल बाद भी यहां के कई इलाकों में जातिगत भेदभाव की घटनाएं सामने आती रहती हैं, जो यह दिखाता है कि सामाजिक समानता की दिशा में अभी लंबा सफर तय करना बाकी है।

जातिवाद का दंश झेल रहा उत्तराखंड

उत्तराखंड की कुल आबादी का 18% हिस्सा दलित समुदाय से आता है, लेकिन इसके बावजूद उन्हें आज भी मंदिरों में प्रवेश से रोका जाता है, सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है और कई मामलों में जातीय हिंसा का शिकार होना पड़ता है।

देहरादून से करीब 150 किलोमीटर दूर जौनसार-बावर इलाके में स्थित शिलगुर मंदिर सहित कई अन्य मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर आज भी रोक है। यह प्रतिबंध राज्य की समानता की सोच और संविधानिक अधिकारों पर सवाल खड़ा करता है।

जातीय हिंसा और उत्पीड़न के मामले-  कुछ समय पहले उत्तरकाशी और अन्य इलाकों से दलित उत्पीड़न की खबरें सामने आई हैं। कुछ महीनों पहले, ऊंची जाति के कुछ लोगों ने एक दलित युवक को पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना ने पूरे राज्य में जातीय हिंसा को लेकर नई बहस छेड़ दी।

इतिहास गवाह है कि उत्तराखंड में जातिगत भेदभाव कोई नई बात नहीं है। साल 1905 में टम्टा सुधार सभा के गठन से लेकर, 1911 में अल्मोड़ा में दलितों के प्रवेश प्रतिबंध तक, यहां जातिगत उत्पीड़न का पुराना इतिहास रहा है। हालांकि, संविधान और कानूनों की मौजूदगी के बावजूद जातिवाद आज भी समाज में गहराई से जड़ें जमाए हुए है।

राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण

जातिवाद को खत्म करने के लिए राज्य सरकार और राजनीतिक दल लगातार वादे करते आए हैं, लेकिन इन वादों की हकीकत ज़मीन पर कुछ और ही नजर आती है।

कांग्रेस नेता सूर्यकांत धस्माना का कहना है कि उत्तराखंड में जातिवाद अन्य राज्यों की तुलना में कम है, लेकिन वर्तमान सरकार के कार्यकाल में जातीय हिंसा में वृद्धि हुई है। जातिगत भेदभाव और हिंसा पर कड़ा एक्शन लेने के बजाय सत्ता में बैठे लोग इस समस्या को बढ़ावा दे रहे हैं।

वहीं, भाजपा विधायक खजान दास का मानना है कि उत्तराखंड में जातीय हिंसा को रोकने के लिए सरकार लगातार काम कर रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी कई जगहों पर जातीय उत्पीड़न की घटनाएं सामने आती रहती हैं।

मंदिरों में प्रवेश पर रोक और सामाजिक बहिष्कार- उत्तराखंड में कई मंदिरों और धार्मिक स्थलों पर दलितों के प्रवेश पर आज भी अप्रत्यक्ष रूप से रोक लगी हुई है। जौनसार-बावर क्षेत्र के 340 से अधिक मंदिरों में से अधिकांश में आज भी दलितों के प्रवेश पर पाबंदी है।

यहां तक कि पिथौरागढ़ के बजेती गांव, जहां दलित बहुलता में हैं, वहां भी अस्पृश्यता जैसी प्रथाएं जारी हैं। इस तरह की प्रथाएं न केवल संविधान का उल्लंघन करती हैं बल्कि समाज में समानता के सिद्धांत को भी ठेस पहुंचाती हैं।

क्या उत्तराखंड जातिवाद से मुक्त हो पाएगा?

जातिवाद समाज के ताने-बाने को नुकसान पहुंचाता है। उत्तराखंड को सच में देवभूमि बनने के लिए इस समस्या से निपटना होगा।

जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए समाज को मिलकर प्रयास करना होगा, ताकि उत्तराखंड का हर नागरिक समान अधिकारों और सम्मान के साथ जी सके। जब तक जातिवाद रहेगा, तब तक सामाजिक एकता और विकास संभव नहीं हो सकता।

उत्तराखंड के कई हिस्सों में जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाएं आज भी देखी जाती हैं। मंदिरों में प्रवेश पर रोक, सामाजिक बहिष्कार और जातीय हिंसा जैसी घटनाएं दिखाती हैं कि जातिवाद की जड़ें अब भी मजबूत हैं।

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