दलितों के विकास के लिए कितना कारगर है जातीय जनगणना

जातीय जनगणना
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कांशीराम ने कहा था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’. वहीं, आज से करीब 91 साल पहले बाबा साहेब ने दलितों को सम्मान दिलाने के लिए अंग्रेजों से एक कानून पास कराया था, जो सीधे तौर पर दलितों को अलग धर्म और संप्रदाय की पहचान देता लेकिन गांधी उस पर कुंडली मार के बैठ गए. दलितों को उनका हक मिलते मिलते रह गया. वैसे ही अंतिम बार जातीय जनगणना 1931 में हुई थी…1941 में भी जातीय जनगणना हुई. कहा जाता है कि उस समय तक कांग्रेस का वर्चस्व कायम हो गया था…ऐसे में दबाव में अंग्रेज प्रशासन ने उसके आंकड़े पब्लिश नहीं किए गए. अब एक बार फिर से देश में जातीय जनगणना को लेकर बातें चल रही है. बिहार में आंकेड़े जारी हो गए हैं और अब कांग्रेस ने भी ऐलान कर दिया है कि अगर वह सत्ता में आते हैं तो जातीय जनगणना कराई जाएगी…

दलित उत्थान के प्रयास

संविधान में दलितों को आरक्षण देने का प्रावधान किया गया…उन्हें छूट दी गई. दलितों की स्थिति को सुधारने के लिए यह एक सार्थक प्रयास था, जो अभी तक जारी है. दूसरी ओर सरकारों ने दलित उत्थान के प्रयास में वैसे कोई खास कदम नहीं उठाए, जिससे दलित समुदाय को समाज में बराबरी के हक मिल सके, उन्हें सम्मान मिल सके. आरक्षण लागू कर दिया और उसी पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे. अब आजादी के 75 सालों के बाद भी देश के लगभग हर हिस्से में  दलितों की स्थिति दयनीय ही है.

अभी  के समय में भी जमीनी स्थिति यही है कि दलित अपने सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं. समाज में अभी भी तमाम वैसी कुरीतियां मौजूद है, जो सीधे तौर पर सरकारों के दलित उत्थान के दावों पर प्रहार करती है. ऐसे में दलित और पिछड़े वर्ग के जीवन स्तर को ऊपर उठाने, उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए जातीय जनगणना समय की मांग है. जातीय जनगणना  के आंकड़ों के आधार पर यदि सरकार योजनाएं निकाले तो इसका सीधा फायदा उस जाति के लोगों को मिल सकता है. या यूं कहें कि जातीय जनगणना से पिछड़े वर्ग के लोगों को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर विकास किया जा सकता है.

अगर देश में जातीय जनगणना होती है तो बजय का एक हिस्सा वैसे वर्ग के उत्थान पर लगाया जा सकता है, जो अभी भी मुख्यधारा में आने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. हालांकि, भाजपा की सरकार जातीय जनगणना के विरोध में है, लेकिन एक समय पर जातीय जनगणना की विरोध करने वाली कांग्रेस पार्टी अब पूर्ण रूप से इसके पक्ष में दिख रही है. ऐसा नहीं है कि जातीय जनगणना का मुद्दा पहली बार सामने आया है…इससे पहले भी समय समय पर इसे लेकर बयानबाजी होती रही है.

आपको बता दें कि देश में आखिरी बार जातिगत जनगणना 1931 में हुई…फिर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरु हो गया और इस कारण 1941 की जनगणना में देरी हुई. उस समय जनगणना हुई लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किए गए..इसका कारण हमने आपको ऊपर बताया है. आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई..तब नेहरु सरकार ने तय किया था कि देश में जाति आधारित भेदभाव को खत्म करना है, इसलिए जातीय जनगणना की जरुरत नहीं है. 90 के दशक में एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने जातीय जनगणना कराने का वादा किया लेकिन ये सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी.

जातिगत जनगणना की मांग

2001 की जनगणना भी पुराने ढंग से हुई  और जातियों की गिनती नहीं हुई. 2011 में फिर से जातीय जनगणना की मांग उठी लेकिन तब कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जनगणना करवाई. इसमें हर परिवार की जाति और सामाजिक आर्थित स्थिति को दर्ज किया गया लेकिन कांग्रेस के मंसूबों का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार ने इसके आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए. तब कांग्रेस ने इसके लिए खामियों का हवाला दिया था. उसके बाद से अभी तक जनगणना नहीं हुई है.

 

 

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