Karamchedu massacre: 17 जुलाई 1985 को आंध्र प्रदेश के करमचेडू गाँव में हुआ एक भीषण जातीय हिंसा का मामला है, जिसमें उच्च जाति के कम्मा जमींदारों ने दलित समुदाय के मदिगा लोगों पर क्रूर हमला किया। इस हमले में छह दलितों की हत्या कर दी गई, कई अन्य गंभीर रूप से घायल हुए, और सैकड़ों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा। इस घटना ने पूरे देश में आक्रोश पैदा किया और दलित अधिकारों के लिए एक महत्वपूर्ण आंदोलन की नींव रखी।
क्या था मामला?
1980 के दशक में करमचेडू गाँव की जनसंख्या लगभग 13,600 थी, जिसमें से 6,000 कम्मा जाति के थे। लगभग 2,000 लोग अनुसूचित जाति से थे, जिनमें 1,100 मदिगा और 900 माला समुदाय के थे। गाँव की 9,000 एकड़ कृषि योग्य भूमि में से अधिकांश कम्मा जमींदारों के स्वामित्व में थी, जबकि दलित समुदाय मुख्यतः कृषि मजदूर के रूप में कार्यरत था। कम्मा जमींदारों की आर्थिक समृद्धि और राजनीतिक प्रभाव के विपरीत, दलित मजदूरों को अत्यंत कम मजदूरी पर लंबे समय तक काम करना पड़ता था, जिससे उनका शोषण और उत्पीड़न होता था।
घटना का विवरण
16 जुलाई 1985 को, एक मदिगा युवक ने एक कम्मा युवक को उस जलाशय में भैंस नहलाने से रोका, जहाँ से दलित अपने पीने का पानी लेते थे। इस मामूली विवाद ने अगले दिन एक संगठित और घातक हमले का रूप ले लिया। 17 जुलाई की सुबह, सैकड़ों कम्मा जमींदारों ने हथियारों से लैस होकर मदिगा बस्ती पर हमला किया, जिसमें छह दलितों की हत्या कर दी गई, तीन महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, और कई घरों को जला दिया गया। इस हमले में न केवल पुरुष, बल्कि महिलाएँ और बच्चे भी शिकार बने। हमले के बाद, सैकड़ों दलितों को गाँव छोड़कर पास के चिराला शहर में शरण लेनी पड़ी। स्थानीय पुलिस की निष्क्रियता और हमलावरों के प्रति सहानुभूति ने पीड़ितों की स्थिति को और भी दयनीय बना दिया।
परिणाम और न्यायिक प्रक्रिया – इस घटना के बाद, राज्य भर में दलित संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने व्यापक विरोध प्रदर्शन किए। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप आंध्र प्रदेश दलित महासभा का गठन हुआ, जिसने दलित अधिकारों के लिए संघर्ष को संगठित और सशक्त किया। न्यायिक प्रक्रिया में कई वर्षों तक देरी हुई। 1994 में, गुन्टूर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने पाँच आरोपियों को आजीवन कारावास और अन्य को तीन साल की सजा सुनाई। हालांकि, 1998 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने सबूतों के अभाव में इन सजाओं को रद्द कर दिया। अंततः, 2008 में, सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य आरोपी को आजीवन कारावास और 30 अन्य को तीन साल की सजा सुनाई।
जातिगत उत्पीड़न
करमचेडू हत्याकांड ने भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और हिंसा की गहरी जड़ों को उजागर किया। इस घटना ने दिखाया कि कैसे आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व वाली जातियाँ अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेती हैं। इसने यह भी स्पष्ट किया कि जातिगत उत्पीड़न केवल ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक समस्या है। इस घटना के बाद, दलित समुदायों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता और संघर्ष की भावना में वृद्धि हुई, जिससे सामाजिक न्याय के लिए नए आंदोलनों का उदय हुआ।
इतिहास के लिए एक काला अध्याय
करमचेडू हत्याकांड भारतीय इतिहास में एक काला अध्याय है, जो जातिगत हिंसा और भेदभाव की भयावहता को दर्शाता है। इस घटना ने न केवल दलित समुदायों को संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी, बल्कि समाज के अन्य वर्गों को भी आत्ममंथन करने पर मजबूर किया कि कैसे जातिगत पूर्वाग्रह और भेदभाव को समाप्त किया जा सके। यह घटना हमें याद दिलाती है कि सामाजिक समानता और न्याय के लिए सतत प्रयास आवश्यक हैं।