Khairlanji Massacre: जातिवादी हिंसा का भयावह सच, जो आज भी झकझोरता है

Uttarpradesh Murder, Muzaffarnagar News
Source: Google

Khairlanji Massacre: भारत में भले ही कई लोग यह मानते हों कि जातिवाद अब खत्म हो गया है और समाज में हर वर्ग को समानता का अधिकार मिल चुका है, लेकिन खैरलांजी हत्याकांड जैसी घटनाएं इस धारणा को पूरी तरह खारिज कर देती हैं। यह घटना न केवल जातिवाद की गहरी जड़ें दिखाती है, बल्कि यह भी बताती है कि कमजोर और हाशिये पर खड़े समुदायों को किस हद तक प्रताड़ना सहनी पड़ती है।

खैरलांजी गांव और भोतमांगे परिवार

महाराष्ट्र के भंडारा जिले के खैरलांजी गांव की रहने वाली सुरेखा भोतमांगे का परिवार ‘महार’ जाति का था, जिसे तथाकथित ‘छोटी जाति’ माना जाता है। सुरेखा एक शिक्षित महिला थीं, जिन्होंने अपने मेहनत और प्रयासों से अपने परिवार को गरीबी से उबारा और एक पक्के मकान का निर्माण किया। उनके परिवार में उनके पति भैयालाल, दो बेटे सुधीर और रोशन, और बेटी प्रियंका शामिल थे। प्रियंका 12वीं की टॉपर थीं और उनका परिवार गांव में प्रगति का प्रतीक बन गया था।

हालांकि, उनकी तरक्की और आत्मनिर्भरता खैरलांजी के कुनबी मराठा समुदाय को बर्दाश्त नहीं हो रही थी। उन्हें यह नागवार गुजरता था कि एक तथाकथित ‘छोटी जाति’ का परिवार इतना प्रगतिशील हो सकता है।

जातिवादी प्रतिशोध की शुरुआत- कुनबियों ने सुरेखा और उनके परिवार को दबाने के कई प्रयास किए। उन्हें अपने खेतों से पानी लाने और बिजली का कनेक्शन लगाने से रोका गया। जब सुरेखा ने अपने खेतों पर उनके अवैध कब्जे का विरोध किया, तो उन्होंने उनकी फसल बर्बाद कर दी। सुरेखा ने इस अन्याय के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई।

इसके बाद, स्थानीय पुलिस हवलदार सिद्धार्थ गजभिये, जो भोतमांगे परिवार के रिश्तेदार थे, ने उन्हें समर्थन दिया और एससी/एसटी कानून के तहत कार्रवाई की धमकी दी। इससे कुनबियों में गुस्सा और बढ़ गया।

29 सितंबर 2006: खौफनाक दिन

29 सितंबर की शाम को लगभग 70 कुनबियों ने सुरेखा के घर पर हमला कर दिया। उस समय घर पर सिर्फ सुरेखा और उनके बच्चे थे, जबकि उनके पति खेतों में काम कर रहे थे। इन हमलावरों ने सुरेखा और उनकी बेटी प्रियंका को नग्न कर पूरे गांव में घुमाया। इसके बाद उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। सुधीर और रोशन को भी नग्न कर उनकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। सुरेखा और प्रियंका की भी हत्या कर उनकी लाशों को सूखी नदी में फेंक दिया गया।

न्याय की लड़ाई और प्रशासन की उदासीनता – इस घटना के बाद भैयालाल भोतमांगे, जो झाड़ियों में छिपकर यह सब देख रहे थे, पुलिस के पास पहुंचे। हालांकि, प्रशासन और पुलिस ने मामले को दबाने की कोशिश की। मीडिया ने भी घटना को जातीय हिंसा की बजाय नैतिकता का मुद्दा बना दिया, यह दावा करते हुए कि सुरेखा का हवलदार गजभिये के साथ अफेयर था।

पूरे महाराष्ट्र में दलित समाज ने इस घटना के खिलाफ प्रदर्शन किया। दबाव के चलते मामला जिला अदालत तक पहुंचा, जहां आठ लोगों को दोषी ठहराया गया। इनमें से छह को मौत की सजा और दो को उम्रकैद दी गई। हालांकि, बाद में नागपुर उच्च न्यायालय ने सजा को कम कर दिया और मौत की सजा को 25 साल के कारावास में बदल दिया।

जातिवाद का कड़वा सच

यह घटना इस बात का प्रमाण है कि जातिवाद भारतीय समाज में कितनी गहराई तक जड़ें जमाए हुए है। खैरलांजी हत्याकांड ने न केवल भोतमांगे परिवार को समाप्त कर दिया, बल्कि यह भी दिखाया कि कैसे न्याय प्रणाली और समाज जातीय हिंसा को नजरअंदाज करने की कोशिश करता है।

‘इंसाफ देर से मिलना और न मिलना एक समान है’। यह कहावत खैरलांजी हत्याकांड पर पूरी तरह फिट बैठती है। भैयालाल भोतमांगे अपनी पत्नी और बच्चों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करते रहे, लेकिन 2017 में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।

खैरलांजी जैसी घटनाएं हमें यह याद दिलाती हैं कि जातिवाद और सामाजिक असमानता को खत्म करने के लिए हमें एक लंबा सफर तय करना है। जब तक समाज और सरकार ऐसी घटनाओं के प्रति संवेदनशील नहीं होंगे, तब तक दलितों और वंचित समुदायों को न्याय पाना एक दूर की कौड़ी बना रहेगा।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *