Kilvenmany massacre: भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और सामाजिक असमानता की भयावह तस्वीर

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Kilvenmany massacre : 25 दिसंबर 1968, क्रिसमस का दिन। तमिलनाडु के तंजावुर जिले के किल्वेनमनी गांव में एक ऐसी घटना घटी, जिसने भारतीय समाज को झकझोर कर रख दिया। यह घटना इतिहास के पन्नों में किल्वेनमनी नरसंहार के नाम से दर्ज है। इस भयावह घटना में 44 दलित मजदूरों—16 महिलाएं, 23 बच्चे, और 5 वृद्ध पुरुषों की जान चली गई। यह नरसंहार सिर्फ हिंसा का एक उदाहरण नहीं, बल्कि भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, आर्थिक शोषण, और सामाजिक असमानता का प्रतीक है।

किल्वेनमनी गांव का सामाजिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य

किल्वेनमनी गांव मुख्य रूप से दलित समुदाय के भूमिहीन मजदूरों का घर था। ये मजदूर ऊंची जातियों के ज़मींदारों की जमीनों पर काम करते थे। दलितों को कम मजदूरी, अमानवीय कार्य परिस्थितियों, और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता था।

  • भूमिहीनता और आर्थिक निर्भरता: अधिकांश दलित परिवार भूमिहीन थे और ऊंची जातियों के ज़मींदारों पर आर्थिक रूप से निर्भर थे।
  • शोषण और भेदभाव: मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम भुगतान किया जाता था। सामाजिक ढांचे में ऊंची जातियों के प्रभुत्व के कारण, दलित समुदाय को आवाज उठाने का अधिकार नहीं था।

घटना की पृष्ठभूमि- 1968 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने दलित मजदूरों को संगठित किया और ज़मींदारों से अधिक मजदूरी और बेहतर कार्य परिस्थितियों की मांग की। यह मांग जमींदारों के लिए आर्थिक और सामाजिक पदानुक्रम के लिए खतरा बन गई। मांगों का विरोध: ज़मींदारों ने मजदूरों की मांगों को खारिज कर दिया और दबाव बनाने के लिए हिंसक उपाय अपनाने का फैसला किया। तनाव का बढ़ना: मजदूरों ने हड़ताल की, जिससे जमींदारों का गुस्सा और बढ़ गया।

नरसंहार की घटना

25 दिसंबर, 1968 की रात को जमींदार गोपालकृष्ण नायडू और उनके करीब 200 समर्थकों ने किल्वेनमनी गांव पर हमला किया।

  • झोपड़ियों को घेरा: हमलावरों ने गांव की झोपड़ियों को घेर लिया और मजदूरों को भागने से रोक दिया।
  • झोपड़ी में आग लगाई: महिलाओं, बच्चों और वृद्धों ने एक छोटी झोपड़ी में शरण ली। हमलावरों ने झोपड़ी में आग लगा दी।
  • जलकर हुई मौतें: 44 लोगों की झुलसकर मौत हो गई। जो लोग बाहर निकलने में सफल हुए, उन्हें हथियारों से मार दिया गया।

प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही

घटना के प्रत्यक्षदर्शी पालनीवेल, जो उस समय 22 वर्ष के थे, ने द हिंदू को दिए साक्षात्कार में कहा:
हमारे पास बचाव का कोई साधन नहीं था। मैंने अपनी आंखों के सामने बच्चों और महिलाओं को जलते देखा।”

कम्युनिस्ट नेता मैथिली शिवरामन ने नरसंहार स्थल का दौरा किया और इसे “श्मशान घाट जैसा दृश्य” बताया।

कानूनी प्रक्रिया और न्याय की विफलता

  • आरोप और फैसला:
    घटना के पीछे धान उत्पादक संघ के नेता गोपालकृष्ण नायडू को मुख्य आरोपी बनाया गया।
    1970 में नागपट्टिनम सत्र अदालत ने उन्हें 10 साल कैद की सजा सुनाई।
  • अपील और बरी होना:
    1973 में मद्रास उच्च न्यायालय ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया।
    यह फैसला न्यायिक प्रणाली की विफलता और दलित समुदाय के साथ अन्याय का प्रतीक बन गया।

जातिगत भेदभाव के गहरे कारण – किल्वेनमनी नरसंहार भारतीय समाज में जातिगत असमानता और सामाजिक-आर्थिक शोषण की गहरी जड़ें उजागर करता है। जाति व्यवस्था के कारण ऊंची जातियों का प्रभुत्व बना रहा। दलितों को “निम्न” मानकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। जमीन का असमान वितरण और मजदूरों की भूमिहीनता ने उनके आर्थिक शोषण को बढ़ावा दिया। जब दलित मजदूरों ने संगठित होकर अपने अधिकार मांगे, तो इसे ऊंची जातियों ने अपने अस्तित्व के लिए खतरा माना।

आज का परिदृश्य: जातिगत हिंसा और असमानता

  • भूमिहीनता का मुद्दा:
    2015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार, दलितों के पास भारत की कुल कृषि भूमि का केवल 9% हिस्सा है।
  • वर्तमान संघर्ष:
    देशभर में भूमि को लेकर 31 संघर्ष चल रहे हैं, जिनसे 92,000 से अधिक दलित प्रभावित हैं।

समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण

समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास और लुइस ड्यूमॉन्ट के अनुसार, जाति व्यवस्था भारतीय समाज में असमानता और भेदभाव का मूल कारण है।

किल्वेनमनी में नरसंहार ज़मींदारों के प्रभुत्व बनाए रखने की कोशिश और दलितों के अधिकार मांगने के संघर्ष का नतीजा था।

किल्वेनमनी नरसंहार केवल एक घटना नहीं, बल्कि जातिगत भेदभाव और सामाजिक असमानता के खिलाफ लड़ाई की एक मार्मिक कहानी है।

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