Melavalavu massacre of 1997: 30 जून 1997 को तमिलनाडु के मदुरै जिले के मेलावलावु गांव में भड़की जातिगत हिंसा ने भारत के सामाजिक ताने-बाने को हिलाकर रख दिया। यह घटना तब हुई जब एक दलित पंचायत अध्यक्ष और उसके समर्थकों को ऊंची जातियों के एक समूह ने बेरहमी से मार डाला। यह हत्याकांड न केवल सामाजिक असमानता को उजागर करता है बल्कि ग्रामीण भारत में जाति-आधारित भेदभाव की गहरी जड़ों को भी दर्शाता है।
घटना का विवरण
मेलावलावु नरसंहार जाति आधारित हिंसा थी, जिसमें पुरुषों के समूह ने ग्राम पंचायत अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सहित सात लोगों की हत्या कर दी, क्योंकि उन्होंने दलित समुदाय के व्यक्ति को अपने ग्राम प्रधान के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
1997 में, दलित पंचायत अध्यक्ष मुरुगेसन और उनके कुछ समर्थक एक बस में यात्रा कर रहे थे, जब सशस्त्र उच्च जाति के लोगों ने उन पर हमला किया। मुरुगेसन और अन्य छह दलितों को बेरहमी से मारा गया। हत्यारों ने न केवल इन्हें मार डाला, बल्कि उनके शरीर को भी क्षत-विक्षत कर दिया, ताकि उनके समुदाय को डराया जा सके। घटना के बाद, गांव में तनावपूर्ण माहौल पैदा हो गया, और कई दलित परिवारों को गांव छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।
इस नरसंहार के मामले में 40 लोगों को गिरफ्तार किया गया। ट्रायल कोर्ट ने 23 को बरी कर दिया और 17 को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 सपठित 34 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। मद्रास हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने सजा को बरकरार रखा।
प्रशासन और न्याय प्रणाली की भूमिका
हालांकि, 17 दोषियों में से एक की जेल में मृत्यु हो गई और तीन को 2008 में समय से पहले रिहा कर दिया गया। पूर्व मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन की जन्म शताब्दी मनाने के लिए राज्य ने 10 साल की सजा पूरी कर चुके सजायाफ्ता कैदियों की समय से पहले रिहाई के मामलों पर विचार करने के लिए योजना बनाई। इस प्रकार राज्य सरकार ने 2019 में इन आजीवन दोषियों को माफी देने का फैसला किया। इसी बीच, जस्टिस जी जयचंद्रन और जस्टिस सुंदर मोहन की मदुरै पीठ की खंडपीठ ने सरकार के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत राज्य की शक्ति का प्रयोग करते हुए समय से पहले रिहाई का आदेश दिया गया। इसमें पीड़ित परिवार की आपत्तियां और आरोपी का आचरण शामिल है।
खंडपीठ ने कहा, “मौजूदा मामले में हम पाते हैं कि समय से पहले रिहाई का विवादित आदेश प्रासंगिक तथ्यों पर विचार करने के बाद जारी किया गया। इसमें पीड़ितों की ओर से आपत्तियां और पैरोल के दौरान और जेल में कैदियों का आचरण, कानून और व्यवस्था की स्थिति शामिल है। 17 दोषियों में से तीन के समय से पहले रिहा होने के बाद गांव में प्रचलित उन तीन दोषियों और शेष 13 दोषियों (बीमारी के कारण एक की मृत्यु) के बीच समानता है।”
याचिकाकर्ताओं ने यह कहते हुए समय से पहले रिहाई को चुनौती दी कि दोषियों में से एक को पहले अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्यों की दोहरी हत्या करने का दोषी ठहराया गया, जिसने उसे छूट का लाभ पाने का अधिकार नहीं दिया। यह तर्क दिया गया कि राज्य इस तथ्य को ध्यान में रखने में भी विफल रहा है कि ग्रामीण जातिगत भेदभाव और अनुसूचित जाति के सदस्यों के खिलाफ हिंसा का शिकार थे।
सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव
मेलावलावु नरसंहार ने तमिलनाडु और देशभर में जातीय भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। दलित संगठनों और मानवाधिकार समूहों ने इस घटना की कड़ी निंदा की और न्याय की मांग की। इस घटना ने राज्य और केंद्र सरकारों को ग्रामीण इलाकों में जातीय तनाव को संबोधित करने की दिशा में ठोस कदम उठाने के लिए मजबूर किया।
मेलावलावु नरसंहार ने तमिलनाडु की राजनीति पर भी गहरा प्रभाव डाला। दलित नेताओं ने इस घटना को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का प्रतीक बनाया और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया। कई राजनीतिक पार्टियों ने दलितों के लिए न्याय की मांग करते हुए इसे अपने चुनाव प्रचार में शामिल किया।
मेलावलावु की स्थिति आज
1997 के नरसंहार के बाद मेलावलावु में धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हुई, लेकिन दलित समुदाय अभी भी असुरक्षा और भेदभाव का सामना कर रहा है। गांव में सामाजिक सद्भाव स्थापित करने के लिए कई प्रयास किए गए हैं, लेकिन जातीय तनाव अब भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है।