Senari Massacre: जब बिहार में बर्बरता की हदें पार हुईं, 13 दोषियों को हाईकोर्ट ने कर दिया था  बरी

Patna High Court News , Nawada fire incident case
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Senari Massacre: बिहार का इतिहास कई हिंसक घटनाओं का गवाह रहा है, लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो सदियों तक लोगों के दिलो-दिमाग में दहशत पैदा कर देती हैं। ऐसी ही एक घटना थी 18 मार्च 1999 को हुआ सेनारी हत्याकांड, जिसने पूरे बिहार को हिलाकर रख दिया था। यह नरसंहार भूमिहार जाति और भूमिहीन दलितों के बीच संघर्ष का नतीजा था, जो धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि गांव के 34 निर्दोष लोगों की निर्मम हत्या कर दी गई।

क्या था सेनारी हत्याकांड?

यह घटना बिहार के जहानाबाद जिले के सेनारी गांव की है। इस गांव में 18 मार्च 1999 की रात करीब 500 से अधिक लोग घुस आए और पूरे गांव को चारों ओर से घेर लिया। गांव के पुरुषों को जबरन घरों से बाहर निकाला गया, और उनमें से 40 लोगों को चुनकर गांव से बाहर ले जाया गया। इसके बाद जो हुआ, उसने इंसानियत को शर्मसार कर दिया।

– गला काटकर और पेट चीरकर 34 लोगों की निर्मम हत्या कर दी गई।
– हत्यारों ने बारी-बारी से हर व्यक्ति को कत्ल किया और किसी को भी नहीं बख्शा।
– हत्या का यह खेल इतने गुस्से और नफरत से भरा था कि उन्होंने एक भी व्यक्ति को छोड़ने की कोशिश नहीं की।

सेनारी गांव में अधिकतर भूमिहार जाति के लोग रहते थे, जबकि हमलावर एमसीसी (माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर) के थे, जो भूमिहीन दलितों और पिछड़ी जातियों के समर्थन में लड़ रहे थे।

इस नरसंहार की जड़ कहां थी?

सेनारी हत्याकांड 1997 में हुए लक्ष्मणपुर-बाथे और नारायणपुर हत्याकांडों का बदला था।

लक्ष्मणपुर-बाथे हत्याकांड (1997): इस नरसंहार में 58 दलितों को तेजधार हथियारों से काट डाला गया था।
नारायणपुर हत्याकांड (1998): 12 दलितों की निर्मम हत्या कर दी गई थी।
इन दोनों हत्याकांडों के पीछे भूमिहार जाति की रणवीर सेना थी।

दलित समुदाय के लोगों में इस कदर आक्रोश था कि वे हर हाल में बदला लेना चाहते थे। सेनारी कांड को माओवादियों और भूमिहीन दलितों ने योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया।

खौफ का दौर और हथियारों की होड़

इस हत्याकांड के बाद पूरा इलाका दहशत में आ गया।

  • गांवों में लोग लाइसेंसी हथियार लेकर घरों की छतों पर बैठने लगे।
  • जिनके पास लाइसेंसी हथियार नहीं थे, उन्होंने कट्टा खरीदना शुरू कर दिया।
  • हर कोई बस इस डर में था कि कब अगला हमला हो जाए।

कई बार अफवाहें फैलती थीं कि माओवादी हमले के लिए आ रहे हैं, और पूरे गांव के लोग तुरंत अपनी सुरक्षा की पोजीशन में आ जाते थे। यहां तक कि महिलाएं और बच्चे भी आत्मरक्षा के लिए तैयार रहते थे।

इस मामले में कानूनी लड़ाई

– इस नरसंहार की जांच के दौरान 70 लोगों पर आरोप लगाए गए।
– 2016 में निचली अदालत ने 10 दोषियों को फांसी और 3 को उम्रकैद की सजा सुनाई थी।

–  20 आरोपियों को पहले ही बरी कर दिया गया था।
– मई 2021 में पटना हाईकोर्ट ने 13 दोषियों को भी बरी कर दिया, जिससे इस केस का कानूनी फैसला पूरी तरह बदल गया।

बिहार सरकार ने इस फैसले के खिलाफ पटना हाईकोर्ट में डेथ रेफरेंस दायर किया था। लेकिन हाईकोर्ट ने साल 2021 में निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए सभी 13 दोषियों को तुरंत रिहा करने का आदेश दे दिया था ।

राजनीतिक दबाव और सरकार की निष्क्रियता

यह हत्याकांड बिहार की राजनीतिक विफलता का भी प्रतीक था। इस हत्याकांड के बाद केंद्र सरकार ने बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया।  लेकिन कांग्रेस के विरोध के कारण सिर्फ 24 दिनों में इसे वापस लेना पड़ा।  पीड़ित परिवार न्याय की आस लगाए बैठे रहे, लेकिन सरकार की निष्क्रियता से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।

रणवीर सेना बनाम एमसीसी: जातीय संघर्ष का खतरनाक दौर

रणवीर सेना: भूमिहार जाति के लोगों द्वारा बनाई गई थी, जो अपनी जमीनों की रक्षा के लिए बनाई गई निजी सेना थी।

एमसीसी (माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर): यह संगठन दलितों और भूमिहीन किसानों के अधिकारों के लिए लड़ रहा था।
यह संघर्ष जमीन पर मालिकाना हक को लेकर था, जिसमें हजारों निर्दोष लोग मारे गए। इस संघर्ष के कारण बिहार के ग्रामीण इलाकों में विरोध और हिंसा की एक अंतहीन लहर दौड़ पड़ी।

बिहार के इतिहास में सेनारी हत्याकांड एक कालिख के रूप में दर्ज है, जो बताता है कि किस तरह जातीय संघर्षों ने इंसानियत को तार-तार कर दिया।

 

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