मुकुंदराव पाटील: सत्यशोधक पत्रकारिता के प्रतीक, जिनकी लेखनी ने बदली समाज की सोच

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Mukundrao Patil Books: मुकुंदराव पाटिल भारतीय पत्रकारिता की दुनिया में एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने न केवल सामाजिक बदलाव की अलख जगाई बल्कि अपने लेखन के माध्यम से शोषितों और दलितों की आवाज़ भी बुलंद की। वे भारत के पहले ग्रामीण अख़बार ‘दीनमित्र’ (Mukundrao Patil Newspaper Din Mitra) के संस्थापक थे, जिसका अर्थ है “दबे-कुचलों का दोस्त”। 1910 में शुरू हुए इस अख़बार का मिशन स्पष्ट था – सच्चाई को उजागर करना और समाज में व्याप्त जातिवाद, अंधविश्वास और पितृसत्ता जैसी बुराइयों पर प्रहार करना। मुकुंदराव पाटिल ने अपनी मृत्यु (1967) तक इसे जारी रखा। उनके लेखन और विचार आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।

ग्रामीण पत्रकारिता की शुरुआत: ‘दीनमित्र’ का जन्म (Mukundrao Patil Books)

1910 में मुकुंदराव पाटिल (Journalist Mukundrao Patil) ने टिन की छत वाले घर से ‘दीनमित्र’ का प्रकाशन शुरू किया। इस अख़बार का मुख्य ध्यान ग्रामीण भारत की समस्याओं, ख़ास तौर पर दलितों और अछूतों के अधिकारों पर था।

  • उन्होंने ब्राह्मणवाद के पाखंड, छुआछूत की प्रथा और मानवाधिकारों के दमन पर खुलकर लिखा।
  • इस अख़बार ने राष्ट्रवादी आंदोलनों की कहानी को चुनौती दी और बाल गंगाधर तिलक के ‘केसरी’ और ‘मराठा’ जैसे अख़बारों की नीतियों की कड़ी आलोचना की।
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उनका नज़रिया साफ़ था- राजनीतिक आज़ादी से ज़्यादा ज़रूरी है सामाजिक न्याय।

ब्राह्मणवाद पर कड़ा प्रहार

मुकुंदराव ने ब्राह्मण पुरोहित वर्ग को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा दुश्मन बताया। उनके संपादकीय और उपन्यासों ने ब्राह्मणवाद की पितृसत्तात्मक मानसिकता को उजागर किया। ‘हिंदू अनी ब्राह्मण’ उपन्यास में उन्होंने तर्क दिया कि ब्राह्मणों ने अपनी सुविधा के अनुसार धर्मग्रंथों में बदलाव किया और समाज के कमजोर वर्गों का शोषण किया। उन्होंने कहा, “हिंदू धर्म के असली दुश्मन ब्राह्मण पुरोहित हैं। अगर कोई नया धर्म अपनाने से मूलभूत अधिकार मिल सकते हैं, तो ऐसा करना चाहिए।”

सामाजिक सवाल और आलोचना

1906 में एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने ब्राह्मण वकीलों और नेताओं से पूछा कि अगर वे अछूत किसानों की मदद नहीं कर सकते तो भव्य मंदिर बनाने के लिए पैसा कहां से आता है। यह सवाल उस समय के समाज के लिए एक गहरा आघात था। ‘दीनमित्र’ ने अन्य धर्मों को अपनाने की संभावनाओं पर भी खुलकर चर्चा की। दलित समुदायों को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा:
“कुत्ते को घर में आने पर फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आपको वे उससे भी नीचे समझते हैं। वहां जाइए, जहां आपको इंसान समझा जाए।”

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साहित्य और पत्रकारिता का संगम

मुकुंदराव सिर्फ़ पत्रकार ही नहीं थे; वे एक साहित्यिक प्रतिभा भी थे।

  • उन्होंने चार उपन्यास लिखे, जिनमें ‘होली चि पोली’ और ‘धा धा शास्त्री पराने’ जैसे उपन्यास शामिल हैं।
  • ये सभी उपन्यास ब्राह्मणवाद और सामाजिक पाखंड पर व्यंग्य थे।

उनकी रचनाएँ सबसे पहले ‘दीनमित्र’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुईं।

संघर्षों के बावजूद ‘दीनमित्र’ की निरंतरता

‘दिनमित्र’ को ब्राह्मण समुदाय और सरकार की ओर से लगातार विरोध का सामना करना पड़ा।

  • स्थानीय ब्राह्मणों ने पाटिल पर मुकदमा दायर किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि वे कृषि भूमि का गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए उपयोग कर रहे हैं।
  • विज्ञापनदाताओं ने भी दबाव में आकर अखबार से दूरी बना ली, जिससे वित्तीय समस्याएं पैदा हो गईं।

लेकिन पाटिल ने हार नहीं मानी। उनके लिए ‘दिनमित्र’ ही उनकी जिंदगी थी।

1967 में ‘दीनमित्र’ का अंत

1967 में मुकुंदराव पाटिल (Mukundrao Patil Newspaper Din Mitra) की मृत्यु के बाद ‘दिनमित्र’ का प्रकाशन बंद हो गया। यह अखबार ग्रामीण भारत के सामाजिक आंदोलनों का एक स्वर्णिम अध्याय छोड़ गया। हालांकि, 2022 में उनके पोते उत्तमराव पाटिल ने 10 खंडों में पाटिल के संपादकीय लेखों का संग्रह प्रकाशित किया, जिससे नई पीढ़ी को उनके विचारों से परिचित होने का अवसर मिला।

सत्य और संघर्ष का प्रतीक

मुकुंदराव पाटिल सिर्फ़ पत्रकार ही नहीं थे, वे सत्यशोधक, समाज सुधारक और साहित्यकार भी थे। उन्होंने पत्रकारिता को सिर्फ़ ख़बरों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे सामाजिक न्याय का हथियार बनाया। उनकी लेखनी ने न सिर्फ़ समाज की बुराइयों पर प्रहार किया, बल्कि वंचितों को अपनी आवाज़ उठाने का साहस भी दिया। उनके विचार आज भी हमें सिखाते हैं कि सत्य के लिए लड़ना ही सच्ची पत्रकारिता है।

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