भीमा कोरेगांव युद्ध के पल-पल की कहानी

Battle of Koregaon
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भारत में शूद्रों की स्थिति पहले के समय में कैसी थी…यह बताने की आवश्यकता नहीं है. उन पर कितने अत्याचार हुए…आप बेहतर जानते होंगे. देश की आजादी से करीब 125 वर्ष पूर्व तक स्थिति बद से बदतर थी. हालत ऐसी थी कि शूद्रों को थूकने के लिए गले में हांडी लटकाना होता था ताकि उनके नाक मुंह से गंदगी न फैले..साथ ही कमर पर झाड़ू बांधना जरुरी था ताकि उनके पैरों के निशान मिटते रहे…यह दलितों पर अत्याचार के सबसे चरम बिंदु की ओर इशारा करता है. यह सब हो रहा था पेशवाओं के राज में…और पेशवाओं के इन्हीं अत्याचारों का परिणाम था भीमा कोरेगांव का युद्ध…जब शूद्रों ने अपने अस्तित्व के लिए मराठाओं के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया

भीमा कोरेगांव हिंसा

दरअसल, कोरेगांव का युद्ध समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, बुराइयों तथा दलित वर्ग के प्रति बुरा व्यवहार की वजह से ही जन्मा था. यह वो समय था जब पेशवा के शासनकाल में शूद्रों का जीना हराम था. उन्हें कमर में झाड़ू इसलिए बांधनी पड़ती थी ताकि शूद्र लोग के पंजों के छाप जमीन से मिट जाए क्योंकि कुछ महाशयों का मानना था कि अगर इनके पैरों के निशान पर सवर्णों का पैर पड़ गया तो वे अपवित्र हो जाएंगे. ऐसी ही अन्य कुप्रथाएं भी समाज में प्रचलित थी और दलित उसके शिकार हो रहे थे.

अब ऐसी कुप्रथाओं के खिलाफ समाज का एक तबका आखिर कब तक अपने ही राज्य में बहिष्कृत होता रहता. जहां अंग्रेज एक तरफ ज्यादातर राज्य अपने कब्ज़े में करना चाहते थे तो दूसरी ओर शूद्रों को भी इन कुप्रथाओं से निजात पाते हुए समाज में अपना सम्मान वापस पाना था. बस अंग्रेजों को मौका मिल गया और वे अपने षड्यंत्र के तहत बड़ौदा के गायकवाड़ और पुणे के पेशवा के मध्य राजस्व से संबंधित विवाद कराने में जुट गए. वे काफी हद तक सफल भी हुए.

यही कारण था कि अंग्रेज़ों ने पेशवा को 1817 में पूणे में एक नई संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया. नतीजतन पेशवा को मराठा परिसंघ के प्रमुख पद से इस्तीफा देना पड़ा और कोंकण क्षेत्र अंग्रेज़ों को सौंपना पड़ा. पुणे की इस संधि ने औपचारिक रूप से अन्य मराठा प्रमुखों पर पेशवा की उपनिष्ठा समाप्त कर दी, इस प्रकार आधिकारिक तौर पर मराठा संघ का अंत हो गया. इसके तुरंत बाद, पेशवा ने पुणे में ब्रिटिश रेसिडेन्सी को जला दिया.

पेशावाओं के पास 28 हजार की सेना थी, जिसमें 20 हजार घुड़सवाल और 8 हजार सैनिक पैदल थे. बात है 1888 की…पेशवा बाजीराव द्वितीय की छत्रछाया और बापू गोखले, अप्पा देसाई, त्र्यंबकजी डेंगले के नेतृत्व में पेशवा पुणे पर आक्रमण करने के लिए बढ़ रहे थे. 31 दिसंबर की रात थी और अगले ही दिन सूर्योदय के साथ नया साल आने वाला था. जब पेशवा बाजीराव द्वितीय की अगुवाई में 28 हज़ार मराठा ब्रिटिश पर हमला करने पुणे जा रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें 800 सैनिकों की टुकड़ी मिली, जो पुणे में अंग्रेजों का साथ देने जा रही थी. इसकी सूचना मिलते ही पेशवा बाजीराव द्वितीय ने 2000 सैनिक भेज कर इन पर हमला करवा दिया.

लेकिन कप्तान फ्रांसिस स्टॉन्टन की अगुवाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की इस टुकड़ी ने क़रीब 12 घंटे तक अपनी पोज़ीशन संभाले रखी और मराठों को कामयाब नहीं होने दिया. बाद में मराठों ने फ़ैसला बदला और कदम खींच लिए. क्योंकि उन्हें इस बात का डर था कि जनरल जोसफ़ स्मिथ की अगुवाई में बड़ी ब्रिटिश टुकड़ी वहां पहुंच जाएगी जिससे मुकाबला आसान नहीं होगा. इस टुकड़ी में भारतीय मूल के जो फ़ौजी थे, उनमें ज़्यादातर महार दलित थे और वो बॉम्बे नेटिव इनफ़ैंट्री से ताल्लुक रखते थे. ऐसे में दलित कार्यकर्ता इस घटना को दलित इतिहास का अहम हिस्सा मानते हैं.

अलग-अलग इतिहासकारों के मुताबिक इस लड़ाई में 834 कंपनी फ़ौजियों में से 275 मारे गए, घायल हुए या फिर लापता हो गए. इनमें दो अफ़सर भी शामिल थे. इंफ़ैंट्री के 50 लोग मारे गए और 105 ज़ख़्मी हुए. ब्रिटिश अनुमानों के मुताबिक पेशवा के 500-600 सैनिक इस लड़ाई में मारे गए या घायल हुए. जो इतिहासकार महारों और पेशवा फ़ौजों के बीच हुए इस युद्ध को विदेशी आक्रांता अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीय शासकों के युद्ध के तौर पर देखते हैं, तथ्यात्मक रूप से वो ग़लत नहीं हैं. लेकिन जानकार मानते हैं कि महारों के लिए ये अँग्रेज़ों की नहीं बल्कि अपनी अस्मिता की लड़ाई थी. वर्णव्यवस्था से बाहर माने गए ‘अस्पृश्यों’ के साथ जो व्यवहार प्राचीन भारत में होता था, वही व्यवहार पेशवा शासकों ने महारों के साथ किया था.

कुछ इतिहासकारों की इस लड़ाई को लेकर अलग राय है. उनका मानना है कि महारों ने मराठों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों को हराया था. ब्राह्मणों ने छुआछूत दलितों पर थोप दिया था इससे वो नाराज़ थे. जब महारों ने आवाज उठाई तो ब्राह्मण नाराज हो गए. इसी वजह से महार ब्रिटिश फ़ौज से मिल गए और मराठाओं के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया. कहीं न कहीं उसी का परिणाम था कि म्हारों ने अंग्रेजों का साथ देते हुए मराठाओं की छठ्ठी की दूध याद दिला दी थी.

जिन दलित वर्ग के सैनिकों ने पेशवाओं से लड़ते हुए अपनी जान गंवाई थी, उन मल्हार सैनिकों के सम्मान में 1822 में भीमा नदी के तट पर काले पत्थरों से एक रणस्तंभ बनाया गया. अभी भी हर साल 1 जनवरी को उन दलित वीरों को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है. यह गांव पुणे में है और काले पत्थरों से निर्मित इस स्तंभ को कोरेगांव स्तंभ भी कहा जाता है.

यह कोरेगांव स्तंभ महार सैनिकों के साहस का परिचय देता है. इस कोरेगांव स्तंभ पर उन महान सैनिकों के नाम लिखे हुए हैं, जो इस लड़ाई को लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे.

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