Top 5 Dalit Movements, जिन्होंने देश को हिला डाला था

Dalit Movements
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समाज में दलितों ने अपने हक की लड़ाई के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष किया है. उनके संघर्ष की यह लड़ाई 100 या 200 वर्षों से नहीं चल रही बल्कि 5 सदियों से चली आ रही है. ऐसा कहा जाता है कि दलितों की लड़ाई लड़ने वाले ज्योतिबा फुले ने  दलित आंदोलनों का सूत्रपात किया था और इसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम बाबा साहेब अंबेडकर ने किया था. लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि दलित आंदोलनों का सूत्रपात ज्योतिबा फुले के जन्म से कई सौ साल पहले ही शुरु हो गया था..

5 ऐसे आंदोलनों जिसने दलितों की दशा और दिशा बदलकर रख दी

जातिगत संगठन की दिशा में छत्तीसगढ़ का सतनामी आन्दोलन एक अतुलनीय प्रयास था. इस आंदोलन के जन्मदाता अठारहवीं सदी के गुरु घासीदास बताये जाते हैं, जो चमार जाति से संबंध रखते थे लगभग डेढ़ सौ साल से भी अधिक समय तक चलनेवाला यह सतनामी आंदोलन चमार जाति की सामूहिक प्रगति एवं कुरीतियों पर विजय पाने वाला आन्दोलन था. गुरु घासीदास ने लोगों को कई वर्णों में बाँटने वाली जाति-व्यवस्था का विरोध किया और अपने अनुयायियों को शराब, तंबाकू, माँस, ओट, लाल रंग की सब्जियों से निषेध कर दिया. उन्होंने संदेश दिया कि “मानव की एक ही जाति, मानव जाति है और मानव का एक ही धर्म, सत्धर्म है.” आज भी उनके उपदेश और धार्मिक अनुष्ठान चमार जाति की कुछ सीधी-साधी धार्मिक परंपराओं में प्रचलित हैं.

हमारी इस लिस्ट का दूसरा आंदोलन है महार आंदोलन…समाज सुधारक गोपालबाबा वलंगकर और शिवराम जानबा कामले के नेतृत्व में दलितों के अधिकार के लिए यह आंदोलन शुरु हुआ था. उनका मानना था कि दलितों की स्थिति सुधारने के लिए उनका पुलिस और सेना जैसे सरकारी विभागों में भर्ती होना बेहद जरुरी है. वलंगकर ने 1894 में एक याचिका के माध्यम से महाराष्ट्र के महारों को ‘क्षत्रिय’ घोषित करने और सेना में भर्ती करने की माँग की. शिवराम जानबा कामले ने महारों को जागरूक और संगठित करने के लिए 1904 में सोमवंशीय हित- चिंतक मित्र समाज’ नामक संस्था की स्थापना की. महारों की स्थिति सुधारने के लिए कामले ने भी महारों को पुलिस और सेना में भर्ती किये जाने की माँग की. अंततः वलंगकर और कामले की मेहनत रंग लाई और 6 फरवरी 1917 से ब्रिटिश सेना में महारों की भर्ती शुरु हो गई…

दलित आंदोलनों की सूची में तीसरा आंदोलन है इझवा जागरण आंदोलन…मलाबार, कोचीन जैसे इलाके में इझ़वा या इलवान एक पारंपरिक अछूत जाति थी, जिसके सदस्य नारियल की खेती करते थे. नारियल उत्पादों के बाजार के विस्तार के साथ इस जाति में एक अपेक्षाकृत समृद्ध वर्ग का उदय हुआ. इझवा जागरण के प्रमुख नेता श्री नारायण गुरु थे. 20वीं सदी में केरल के इझवा समुदाय के लोगों ने नारायण गुरु से प्रेरित होकर ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध संघर्ष करना शुरु कुया था. मंदिरों में प्रवेश करने समेत उनकी की मांगे थी.  नारायण गुरु का तत्वज्ञान था – मनुष्य के लिए एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर.

इझवा जाति के उत्थान के लिए नारायण गुरु ने 1902 में श्रीनारायण धर्म परिपालन योगम् की स्थापना की, इस संगठन के दो प्रमुख उद्देश्य थे- एक तो अस्पृश्यता को समाप्त करना और दूसरा पूजा, विवाह आदि को सरल बनाना. यह वही नारायण गुरु थे, जिनकी सलाह पर गांधीजी ने अपने अखबार ‘नवजीवन’ का नाम बदलकर ‘हरिजन’ किया था और दलित जातियों को ‘हरिजन’ नाम दिया था.

इसके अलावा दलितों के उत्थान की लड़ाई के लिए हुआ नामशूद्र आंदोलन के योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता. 19 वीं सदी के अंतिम दशक में बंगाल के ‘चंडाल’ जाति में पैदा हुए चाँदगुरु ने विद्यालय खोलकर अछूतों को शिक्षित किया. 1899 में बंगाल में जाति-निर्धारण सभा की स्थापना की गई और चंडालों को ‘नाम शूद्र’ नाम दिया गया. नाम शूद्र गरीब अछूत किसान थे, जो अंग्रेजों की अपेक्षा अपना शोषण करने वाले उच्चवर्गीय भद्रलोक को ही अपना शत्रु समझते थे. 1901 के पश्चात् पढ़े-लिखें लोगों के एक छोटे-से समूह के आह्वान पर एवं कुछ मिशनरियों के प्रोत्साहन से नाम शूद्रों की जातिगत समितियां गठित की जाने लगीं और ‘ नाम शूद्र’, ‘पताका’ और ‘नाम शूद्र हितैषी’ जैसी पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगी थी.

इस लिस्ट का पांचवा आंदोलन है नाडार आंदोलन…दरअसल, दक्षिणी तमिलनाडु में ‘शनार’ समाज के लोगों को अछूत माना जाता था. ये वो लोग होते थे जो ताड़ी निकालने का काम करते थे. उन्नीसवीं सदी अंतिम दौर में रामनाड जिले के कस्बों में इस जाति के समृद्ध व्यापारियों के एक समूह का उदय हुआ, जिसने शैक्षिक एवं समाज कल्याण की गतिविधियाँ चलाने के लिए धन एकत्रित किया और अपने-आपको नाडार (क्षत्रिय) घोषित कर ऊँची जाति के रीति-रिवाजों और आचार-व्यवहार को अपना लिया. इस समूह ने 1910 में ‘नाडार महाजन संगम’ की स्थापना की. लेकिन इस संस्कृतिकरण से तिरुनेलवेली के नीची जाति के गछवाहे प्रभावित नहीं हुए. परिणाम यह हुआ कि आज भी उन्हें उनकी पुरानी जाति के अनुसार ही संबोधित किया जाता है, जबकि रामनाड जिले में रहने वाले उनके भाई-बंधुओं ने ‘नाडार’ कहलाने का अधिकार प्राप्त कर लिया था.

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