गांधी ने दलितों के लिए क्या कुछ नहीं किया….उनका नाम बदला…उनकी लड़ाई लड़ी…उनके लिए खड़े रहे…ऐसी बातें अक्सर हमें सोशल मीडिया पर देखने और सुनने को मिल जाती है. लेकिन क्या यहीं सच्चाई है? क्या गांधी ने दलितों के उत्थान के लिए अपना जीवन खपा दिया? जवाब है बिल्कुल नहीं. गांधी आत्ममुग्ध थे…उन्हें दलितों का भगवान भी बनना था और अपने कुकृत्यों को भी जारी रखना था…जिसके कारण वह न तो दलितों के हुए और न ही समाज के…हालांकि, फिर भी आजादी के बाद उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा मिल गया…
दलितों को मिलने वाले अधिकार के विरुद्ध अनशन
ऐसा कहा जाता है कि गांधी, दलित समुदाय को समाज में उठाना चाहते थे…इसके लिए उन्होंने काफी प्रयास किया..काफी काम किया. इसी कड़ी में उन्होंने दलितों को हरिजन बुलाना शुरु किया, जिसका अर्थ होता है भगवान की जनता. वे इस शब्द के माध्यम से उन्हें सामाजिक उच्चता का अधिकार दिलाने का प्रयास करते थे. लेकिन गांधी इतने ही दलित हितैषी थे तो उन्होंने दलितों को मिलने वाले अधिकार के विरुद्ध अनशन क्यों कर दिया…
जी हां, 1932 में बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर ने समाज में दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए ब्रिटिश सरकारल के सामने एक प्रस्ताव रखा. इसमें सीटों में आरक्षण के बजाय दलितों को अपना प्रतिनिधि अलग से चुनकर भेजने की व्यवस्था सुझाई गई थी. मजे की बात तो यह थी कि इसे ब्रिटिश सरकार की ओर से हरी झंडी भी मिल गई थी लेकिन गांधी समेत पूरा कांग्रेस इसके विरोध में खड़ा हो गया. गांधी ने तो इसके विरुद्ध आमरण अनशन शुरु कर दिया. जिसका नतीजा यह हुआ कि यह प्रस्ताव निरस्त हो गया. अब आप समझ सकते हैं कि गांधी कितने बड़े दलित हितैषी थे.
गांधी ने हरिजन शब्दावली निकाली. दलितों के उत्थान के लिए हरिजन सेवक संघ बनाया लेकिन जब गांधी ने दलितों को यह संज्ञा दी, उस समय जमीनी स्थिति सबसे बदतर थी. इसलिए दलितों ने उनका विरोध भी किया था. वहीं, दलितों ने गांधी के बनाए हरिजन सेवक संघ को भी इसलिए नकार दिया क्योंकि यह एक शीर्षस जाति की मदद से दलितों के उत्थान की सोच को दर्शाता था ना कि दलितों के जीवन पर उनके अपने नियंत्रण की. दलितों को हरिजन शब्द गाली के समान लगती थी. ऐसे में जब पूरे देश में दलितों को साथ बर्बरता हो रही हो और आप सिर्फ नाम बदलकर अपनी पीठ थपथपा रहे हों…फिर तो आप पर दलितों के हितैषी होने का तमगा कहीं से फिट नहीं बैठता.
गांधी से जुड़ी एक और घटना का जिक्र बार बार होता है. दरअसल, गांधी एक बार दलित बस्ती में रहने गए थे तो उन्हें दलित ने खाने के लिए एक फल दिया. गांधी ने प्रत्यक्ष तौर पर तो नहीं लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर उस फल को खाने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि यह फल मैं अपनी बकरी को खिलाऊंगा और जब वह दूध देगी तो वह दूध मैं पी लूंगा, जिससे आपका फल मैं अप्रत्यक्ष रुप से खा लूंगा.
इस घटना को लेकर भी एक कहानी गढ़ी गई और बताया गया कि गांधी ने दूध न पीने की कसम खा रखी थी, इसलिए उन्होंने उस दलित के फल को खाने से मना कर दिया. अगर ऐसा ही था तो फिर गांधी बकरी का दूध क्यों पीते थे? कई रिपोर्ट्स यह दावा करती है कि गांधी ने 1917 से यानी 1915 में भारत आने के 2 सालों बाद से ही नियमित तौर पर बकरी के दूध का सेवन शुरु कर दिया था.अब गांधी दलितों के कितने पक्षधर थे…उनके कितने बड़े हितैषी थे..आप समझ सकते हैं..