आज़ादी के बाद भी दलितों को पासपोर्ट क्यों नहीं देती थी भारत सरकार

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मनुवादी मानसिकता का गुलाम भारतीय समाज सदियों से रहा है. ब्राह्मणवादियों के प्रपंच ने हमेशा से दलितों को दुत्कारा है…उन्हें समाज से अलग थलग किया है. बाबा साहेब ने मुखर होकर इन मनुवादियों के विरुद्द लड़ाई लड़ी और दबे कुचले समुदाय  को संजीवनी देने का काम किया. संविधान बना तो दलितों की स्थिति सुधारने के लिए उसमें आरक्षण का प्रावधान किया गया…लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आजादी के करीब 20 वर्ष बाद तक भारत सरकार की ओर से दलितों को पासपोर्ट नहीं दिया जाता था…

जब खुद भारत सरकार ही दलितों को पासपोर्ट नहीं देती थी…

1947 में भारत तो आजाद हो गया लेकिन अंग्रेजों की तमाम नीतियां ज्यों की त्यों बनी रही. उसी ढर्रे पर देश चलता रहा…अंग्रेजों की उन्हीं नीतियों में से एक थी भारतीय पासपोर्ट नीति. विदेश यात्रा को इज्जत और प्रतिष्ठा से जोड़कर सरकारों ने अपनी ऐसी कुंठित मानसिकता बना ली थी कि उससे अलग हटकर ये कुछ देखना ही नहीं चाहते थे. मनुवादियों ने ये ढर्रा बना रखा था कि विदेश यात्रा केवल उनके लिए है, जिनमें भारत का प्रतिनिधित्व करने का आत्मविश्वास है.

उस समय भारत का पासपोर्ट रखने वालों को सरकार द्वरा मान्यता प्राप्त और भारत का प्रतिनिधि माना जाता था. इसकी वजह से मजदूरी और कुली जैसे काम करने वाले लोगों को अवांछनीय समझा जाता था…उस समय श्रीलंका, म्यांमार और मलाया जाने वाले मजदूरों को भी पासपोर्ट नहीं दिया जाता था. इन मजदूरों की संख्या 10 लाख से अधिक थी. 1947 के बाद भी यह परिपाटी चलती रही. केवल शिक्षित लोगों का ही पासपोर्ट पर अधिकार था.

ध्यान देने वाली बात है कि उस दौर में दलितों को पासपोर्ट न देने के कई तिकड़म और भी थे, जैसे आवेदकों को अंग्रेजी भाषा का टेस्ट देने के साथ-साथ अपनी लिटरेसी का भी प्रमाण देना होता था. आवेदकों के पास पर्याप्त पैसे होना भी शर्तों में से एक था.

उस दौर में पासपोर्ट ना देने के ओर भी तरीके थे जैसे आवेदकों को लिटरेसी और अंग्रेजी भाषा का टेस्ट देना होता था, आवेदकों के पास पर्याप्त पैसे होना भी एक शर्त थी, इसके साथ ही सार्वजनिक स्वास्थ्य के नियम मानने होते थे. स्थिति इतनी बुरी थी कि कई पढ़े लिखे लोगों को भी पासपोर्ट हासिल करने में 6 से 7 महीने लग जाते थे. जाली पासपोर्ट का चलन अपने चरम पर था और आजादी के करीब 2 दशक तक यही स्थिति बनी रही.

1967 में भारत की सर्वोच्च अदालत की नींद खुली और कोर्ट ने यह तय किया कि भारत के प्रत्येक नागरिक को पासपोर्ट रखने और विदेश जाने का मूल अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद चीजें बदली और कमजोर एवं दबे कुचले वर्ग के लोग भी पासपोर्ट पाने के हकदार बनें. आपको बता दें कि साल 2018 में मोदी सरकार ने भी पासपोर्ट से छेड़छाड़ करने की कोशिश की थी. यह कहा गया था कि अकुशल और सीमित शिक्षा वाले भारतीयों का पासपोर्ट ऑरेंज होगा. जबकि भारतीय पासपोर्ट का रंग नीला होता है. तब मोदी सरकार के इस फैसले का जमकर विरोध हुआ था, जिसके कारण सरकार को अपने कदम पीछे लेने पड़े थे.

 

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