ईवी रामास्वामी पेरियार और बाबा साहेब अंबेडकर दलितों के उत्थान और दलित राजनीति के 2 ध्रुव हुए. उत्तर से लेकर दक्षिण तक दलितों के लिए उनकी लड़ाई सर्वविदित है. उनके बीच कई समानताएं थीं. कई मामलों पर वे एकमत थे लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि उनमें असमानताएं नहीं थी. वो अलग बात है कि पेरियार और अंबेडकर के बीच की असमानताओं पर बातचीत नहीं होती. इस लेख में हम आपको बताएंगे की दलितों के मसीहा बाबा साहेब और पेरियार के बीच की 5 असमानताओं के बारे में
पहला…आर्यन द्रविड़ विभाजन में शामिल नहीं हुए अंबेडकर
ईवी रामास्वामी पर नस्लवाद के आरोप लगते रहे हैं. ऐसा कहा जाता है कि वो नस्लवादी थे और उन्होंने नस्लीय रूढ़ियों को बढ़ावा दिया. वहीं, दूसरी ओर बाबा साहेब अंबेडकर मानवतावादी विचारधारा में विश्वास रखते थे. उन्होंने भारतीय समाज की नस्लीय व्याख्या का काफी गहनता से अध्ययन किया था औऱ इसे सिरे से खारिज कर दिया था.
अंबेडकर ने आर्य आक्रमण के सिद्धांत के साथ-साथ जाति के विचार को ‘एक आविष्कार’ कहा था. उन्होंने स्पष्ट कहा था कि नस्ल का भारत में सामाजिक गतिशीलता से कोई लेना देना नहीं है. बाबा साहेब ने कहा था – “यदि एंथ्रोपोमेट्री एक ऐसा विज्ञान है जिस पर लोगों की नस्ल का निर्धारण करने के लिए निर्भर किया जा सकता है …(तो) इसके माप यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मण और अछूत एक ही जाति के हैं. इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि ब्राह्मण आर्य हैं तो अछूत भी आर्य हैं. यदि ब्राह्मण द्रविड़ हैं, तो अछूत भी द्रविड़ हैं….”
वहीं, पेरियार का कहना था कि “हम तमिल लोग इस भूमि के शासक थे और हमने खानाबदोशों के एक समूह के लिए अपनी प्रतिष्ठा, शासन शक्ति और वीरता खो दी, जो अपने मवेशियों के साथ यहां आए थे…हम इस गुलामी से तभी बाहर आ पाएंगे जब हम इस भावना को दूर कर देते हैं कि हम हिंदू हैं और हम भारतीय हैं.”
दूसरा…अंबेडकर को पसंद नहीं था पेरियार का एकेश्वरवाद
पेरियार नास्तिक थे और वो एकेश्वरवाद के समर्थक थे. एकेश्वरवाद का मतलब होता है – एक ईश्वर में विश्वास. पेरियार का कहना था कि मैं लोगों को भगवान की पूजा करने से मना नहीं कर रहा हूं लेकिन उन्हें ईसाई और मुसलमानों की तरह एक भगवान की पूजा करनी चाहिए. दूसरी ओर ईश्वर के सार्वभौमिक विचार को लोकतंत्र की कमजोर नींव बताने वालों पर तमाचा जड़ते हुए बाबा साहेब ने उसे सिरे से खारिज कर दिया था. उन्होंने ब्राह्मण की हिंदू अवधारणा को लोकतंत्र के निश्चित औऱ सबसे उपयुक्त आधार माना था.
तीसरा…पेरियार लोकतंत्र के पक्षधर नहीं थे लेकिन अंबेडकर थे
पेरियार पूरी तरह से लोकतंत्र के खिलाफ थे. वो लोकतंत्र को समाज की सभी समस्याओं का मूल कारण मानते थे और उसे ब्राह्मणों की दुष्ट चालबाजी समझते थे. 8-2-1931 के अपने संपादकीय में पेरियार ने कहा था कि “विभिन्न भाषाओं, धर्मों और कम साक्षरता वाली जातियों वाले राष्ट्र में लोकतंत्र किसी भी तरह से कोई प्रगति नहीं ला सकता है.”
दूसरी ओर बाबा साहेब अंबेडकर ने सार्वभौमिक मताधिकार का पुरजोर समर्थन किया और कहा था कि ‘वोट का प्रयोग अपने आप में एक शिक्षा है’. उन्होंने कहा था कि “सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ जीवन का एक तरीका है, जो जीवन के सिद्धांत के रूप में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को पहचानता है.”
चौथा…अंबेडकर संस्कृत समर्थक थे जबकि पेरियार संस्कृत विरोधी
पेरियार को संस्कृत सहित ब्राह्मणों से जुड़ी हर चीज से गहरी नफरत थी. उन्होंने कहा था कि “आर्य अलग-अलग जगहों पर खानाबदोश थे और उन्होंने अलग-अलग बोलियां चुनीं. और जिसे वे आज अपनी संस्कृत भाषा कहते हैं, वह वास्तव में इन बोलियों और अलग-अलग युगों में अलग-अलग जगहों पर बोली जाने वाली भाषाओं का एक संयोजन है. संस्कृत भाषा में कुछ भी अच्छा नहीं है और ब्राह्मण केवल खुद को श्रेष्ठ बनाने और अन्य भाषाओं को अपमानित करने के लिए संस्कृत के बारे में ऊंची बातें करते हैं.”
जबकि संस्कृत को लेकर बाबा साहेब के विचार बिल्कुल अलग थे. अंबेडकर स्वयं संस्कृत को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के पक्षधर थे. उनका मानना था कि संस्कृत महाकाव्यों का सुनहरा खजाना है. वो कहते थे कि संस्कृत व्याकरण, राजनीति और दर्शन का पालना तथा तर्क, नाटक और आलोचना का घर है.
पांचवां…अम्बेडकर द्विअर्थी नहीं थे
बाबा साहेब अंबेडकर ने हमेशा मानवता को सर्वोपरि रखा. उन्होंने मानवता की परवाह की और जब मानवता के खिलाफ अपराध हुआ तो उन्होंने इसकी निंदा की. उदाहरण के लिए उन्होंने मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के मोपला नरसंहार पर कभी लीपापोती नहीं की. उन्होंने कट्टरपंथी हत्यारों के लिए कोई भी बहाना नहीं खोजा. बाबा साहेब ने खुलकर इस पर अपना विरोध जताया था.
वहीं, हम अगर पेरियार के जीवन में घटित एक ऐसी ही घटना के बारे में जिक्र करते हैं तो यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि पेरियार द्विअर्थी ही नहीं बल्कि अपने बोल के पक्के भी नहीं थे. दरअसल, डीएमके शासन के दौरान, तमिलनाडु के एक गांव कीझवेनमनी में 44 दलितों का नरसंहार हुआ था, उन्हें गैर-ब्राह्मण ‘द्रविड़’ उच्च जातियों द्वारा जलाकर मार डाला गया था. लेकिन पेरियार ने कभी भी गैर-ब्राह्मण द्रविड़ जातियों द्वारा दलितों के नरसंहार की निंदा नहीं की.