मुसलमानों को लेकर काफी हद तक सही थे डॉ. भीमराव अंबेडकर?

Ambedkar Thoughts on Islam
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Ambedkar on Muslims in Hindi: बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को लेकर लोगों के मन में कई तरह की धारणाएं हैं. उनके विचारों से कुछ लोगों की भावनाएं आहत हो सकती हैं लेकिन उनके द्वारा किए गए कार्यों के आगे सारी चीजें फीकी पड़ जाती हैं. हिंदू धर्म और ब्राह्मणों को लेकर बाबा साहेब के क्या विचार थे, वो हम आपको पहले ही बता चुके हैं…उसका लिंक डिस्क्रिप्शन में है…लेकिन बाबा साहेब मुस्लिमों को लेकर क्या सोचते थे, उस पर आज भी बात करने से काफी लोग कतराते हैं.

बाबा साहेब ने अपना पूरा जीवन दलितों, श्रमिकों, किसानों और महिलाओं के अधिकारों के समर्थन में खपा दिया लेकिन इस्लाम को लेकर वो हमेशा से मुखर रहे थे. वजह थी उनकी उनके धर्म के प्रति कट्टरता. अंबेडकर ने इस्लाम की हिंदू धर्म से तुलना करते हुए उसकी इसलिए आलोचना की थी कि इस्लाम में हिंदू धर्म की तरह कभी भी कोई समाज सुधार आन्दोलन नहीं हुआ. वे अपने धर्म में मौजूद बुराइयों को पीढ़ी दर पीढ़ी ढोते रहे, जबकि इसके उलट हिंदू धर्म में समय-समय पर कई ऐसे समाज सुधार आन्दोलन हुए जिसके परिणामस्वरूप हिंदू धर्म के अनुयायियों ने एक समाज के रूप में तरक्की की.

मुसलमानों को लेकर बाबा साहेब ने क्या कहा था – Ambedkar on Muslims

इस्लाम में मौजूद सामाजिक बुराइयों पर अंबेडकर ने अपने एक बयान में कहा था कि “मुसलमानों में इन बुराइयों का होना दुःखद है. लेकिन उससे भी ज्यादा दुखद बात ये है कि भारत के मुसलमानों में समाज सुधार का ऐसा कोई संगठित आंदोलन नहीं उभरा, जो इन बुराइयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन कर सके. हिंदुओं में भी अनेक सामाजिक बुराइयां हैं लेकिन इस धर्म की खास बात ये है कि उनमें से अनेक इनकी मौजूदगी से भली भांति परिचित हैं. और उनमें से कुछ उन बुराइयों को समाज से मिटाने के लिए सक्रिय तौर पर आंदोलन भी चला रहे हैं.”

वहीं, मुसलमानों को लेकर उन्होंने कहा था कि “मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि बुराइयां हैं. जिसकी वजह से वो मुस्लिम समाज में पनप रही बुराइयों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाते. इसके ठीक उल्टा, अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं. यह उल्लेखनीय है कि मुसलमानों ने केंद्रीय असेंबली में 1930 में पेश किए गए बाल विवाह विरोधी विधेयक का भी विरोध किया था, जिसमें लड़की की विवाह योग्य आयु 14 वर्ष और लड़के की 18 वर्ष करने का प्रावधान था. मुसलमानों ने इस विधेयक का विरोध इस आधार पर किया कि ऐसा किया जाना मुस्लिम धर्मग्रंथ द्वारा निर्धारित कानून के विरुद्ध होगा. उन्होंने इस विधेयक का हर चरण पर विरोध ही नहीं किया बल्कि जब यह कानून बन गया तो उसके खिलाफ सविनय अवज्ञा अभियान भी छेड़ा.”

इस्लाम में लोकतंत्र की कमी को उजागर करते हुए अंबेडकर ने कहा कि “मुसलमानों की सोच में लोकतंत्र के कोई मायने नहीं है. उनकी सोच को प्रभावित करने वाला तत्व यह है कि लोकतंत्र प्रमुख नहीं है. उनकी सोच को प्रभावित करने वाला तत्व यह है कि लोकतंत्र, जिसका मतलब बहुमत का शासन है, हिंदुओं के विरुद्ध संघर्ष में मुसलमानों पर क्या असर डालेगा? क्या उससे वे मजबूत होंगे अथवा कमजोर? यदि लोकतंत्र से वे कमजोर पड़ते हैं तो वे लोकतंत्र नहीं चाहेंगे. वे किसी मुस्लिम रियासत में हिंदू प्रजा का मुस्लिम शासक की पकड़ कमजोर करने के बजाए अपने निकम्मे राज्य को वरीयता देंगे.”

उन्होंने यह भी कहा कि “मुस्लिम संप्रदाय में राजनीतिक और सामाजिक गतिरोध का केवल एक ही कारण बताया जा सकता है. मुसलमान सोचते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों को सतत संघर्षरत रहना चाहिए. हिंदू, मुसलमानों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास करते हैं और मुसलमान अपनी शासक होने की ऐतिहासिक हैसियत बनाए रखने का.”

मुसलमानों के भाईचारे का ये है मतलब?

Ambedkar on Muslims- अंबेडकर ने तत्कालीन मुस्लिम राजनीति को केंद्र में रखते हुए मुस्लिम नेताओं की भी आलोचना की थी. उन्होंने अपने बयान में कहा था कि “मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाना और दंगे…इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है. चेकों के विरुद्ध सुडेटेन जर्मनों ने जिन तौर-तरीकों को अपनाया था वे उसका जानबूझकर तथा समझते हुए अनुकरण करते प्रतीत हो रहे हैं.”  इस्लाम में अक्सर भाईचारे की बात की जाती है. अमन-चैन और सभी कौमों के एक साथ रहने की बात की जाती है. इस बारे में बाबासाहब ने कहा था कि इस्लाम जिस भाईचारे को बढ़ावा देता है, वह एक वैश्विक या सार्वभौमिक भाईचारा नहीं है. बाबासाहब के इस कथन से झलकता है कि वह इस्लाम में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जैसी किसी भी धारणा होने की बात को सिरे से नकार देते थे.

उन्होंने इसे लेकर कहा था कि “इस्लाम में जिस भाईचारे की बात की गई है, वो केवल मुस्लिमों का मुस्लिमों के साथ भाईचारा है. इस्लामिक बिरादरी जिस भाईचारे की बात करता है, वो उसके भीतर तक ही सीमित है. जो भी इस बिरादरी से बाहर का है, उसके लिए इस्लाम में कुछ नहीं है- सिवाय अपमान और दुश्मनी के. इस्लाम के अंदर एक अन्य खामी ये है कि ये सामाजिक स्वशासन की ऐसी प्रणाली है, जो स्थानीय स्वशासन को छाँट कर चलता है. एक मुस्लिम कभी भी अपने उस वतन के प्रति वफादार नहीं रहता, जहाँ उसका निवास-स्थान है बल्कि उसकी आस्था उसके मज़हब से रहती है. मुस्लिम ‘जहाँ मेरे साथ सबकुछ अच्छा है, वो मेरा देश है’ वाली अवधारणा पर विश्वास करें, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता.”

डॉ अंबेडकर ने विभाजन पर कही थी ये बात

बाबा साहेब ने कहा था कि इस्लाम कभी भी, किसी भी अपने अनुयायी को यह स्वीकार नहीं करने देगा कि भारत उसकी मातृभमि है. बाबासाहब के अनुसार, इस्लाम कभी भी अपने अनुयायियों को यह स्वीकार नहीं करने देगा कि हिन्दू उनके स्वजन हैं, उनके साथी हैं. पाकिस्तान और विभाजन पर अपनी राय रखते हुए बाबासाहब ने ये बातें कही थीं. अंबेडकर की इन बातों पर आज ख़ुद को उनका अनुयायी मानने वाले भी चर्चा नहीं करते, क्योंकि ये उनके राजनीतिक हितों को साधने का काम नहीं करेगा. Ambedkar on Muslims

बाबा साहब कहते थे कि कोई भी मुस्लिम उसी क्षेत्र को अपना देश मानेगा, जहाँ इस्लाम का राज चलता हो. इस्लाम में जातिवाद और दासता की बात करते हुए अंबेडकर ने कहा था कि सभी लोगों का मानना था कि ये चीजें ग़लत हैं और क़ानूनन दासता को ग़लत माना गया, लेकिन जब ये कुरीति अस्तित्व में थीं, तब इसे सबसे ज्यादा समर्थन इस्लामिक मुल्कों से ही मिला. उन्होंने माना था कि दास प्रथा भले ही चली गई हो लेकिन मुस्लिमों में जातिवाद अभी भी है. बाबा साहेब का साफ़-साफ़ मानना था कि जितनी भी सामाजिक कुरीतियाँ हिन्दू धर्म में हैं, मुस्लिम उनसे अछूते नहीं हैं.

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