बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को स्कॉलरशिप देने वाले ‘ब्राह्मणवादी राजा’ का पर्दाफाश

सयाजीराव गायकवाड़
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एक दलित बच्चा…जिसने बचपन से गरीबी देखी…बचपन से ही छुआछूत देखा…हर जगह ठोकर खाई, जूठन खाकर जिंदगी बिताई…फिर पढ़ाई को हथियार बनाया…देश से लेकर विदेश तक में उसने इतनी पढ़ाई की, कि दशकों तक बड़े से बड़े स्कॉलर उनके आगे बैठने से, उनसे चर्चा करने से डरते थे..दलित समाज से आने वाला यह शख्स कोई और नहीं बल्कि हमारे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर थे. इनकी पढ़ाई का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इनके पास 32 डिग्रियां थीं और इन्हें 9 भाषाओं का काफी अच्छा ज्ञान था…लेकिन इतना सबकुछ होने के बावजूद तब स्थिति इतनी दयनीय हो गई थी कि इन्हें नौकरी पाने के लिए दर-दर का ठोकर खाना पड़ा था. आज के लेख में हम आपको बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर की जिंदगी के उस हालात के बारे में बताएंगे, जब पारसियों के कारण उन्हें घर छोड़ना पड़ा था और नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी थी

यहां समझिए पूरी कहानी

बाबा साहेब पढ़ाई में शुरु से ही काफी अच्छे थे.. एलफिंस्टन कॉलेज, मुंबई से उन्होंने अपना ग्रेजुएशन पूरा किया. 1913 और 1916 के बीच, उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क से अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री प्राप्त की। फिर उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। उन्हें विदेश भेजने के पीछे गुजरात के वडोदरा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय का हाथ था। उन्होंने बाबा साहेब को विदेश में पढ़ाई करने में मदद की। विदेश जाने से पहले उन्होंने महाराजा को लिखे पत्र में वादा किया था कि विदेश से शिक्षा प्राप्त करने के बाद वो यहीं आकर काम करेंगे। लेकिन जब वह विदेश से पढ़ाई करके भारत लौटे तो उन्होंने अपने जीवन में एक ऐसा दौर देखा जिसकी उन्होंने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी।

दरअसल,  यूरोप और अमेरिका में अपने पांच साल के प्रवास के दौरान बाबा साहेब को यह एहसास ही नहीं हुआ था कि वो एक अछूत हैं और भारत में अछूत को लेकर भेदभाव किया जाता है। इन्हीं भावनाओं के साथ जब वो अपने वादे के मुताबिक विदेश से पढ़ाई करके भारत लौटे तो उन्हें एक बार फिर जातिवाद का सामना करना पड़ा। डॉ अंबेडकर को उनकी जाति के कारण बड़ौदा में कोई कमरा देने को तैयार नहीं था। काफी मशक्कत के बाद उन्होंने एक पारसी धर्मशाला में नाम बदलकर रहने का फैसला किया।

वडोदरा में सिर्फ 11 दिन रह पाए थे अंबेडकर

बाबा साहेब की किताब वेटिंग फॉर वीजा के मुताबिक वो वडोदरा में सिर्फ 11 दिन ही रह पाए थे। इतने ही दिनों तक उन्होंने बड़ौदा के महाराजा के लिए काम किया लेकिन वहां भी उन्हें छुआछूत का सामना करना पड़ा। ब्राह्मण क्लर्क तथा अन्य अधीनस्थ कर्मचारी खुलेआम उनके विरुद्ध अभद्र भाषा का प्रयोग करते थे। छुआछूत पर कोई अंकुश नहीं था.. कागजात की फाइल दूर से ही डॉ अम्बेडकर की ओर फेंकी जाती थी ताकि उनके संपर्क से बचा जा सके। यह सब सहते हुए डॉ अम्बेडकर अपना काम करते रहे।

इसी बीच, पारसी गेस्ट हाउस में जब लोगों को भीमराव अंबेडकर की जाति के बारे में पता चला तो वे धर्मशाल के बाहर जमा हो गए। उन सभी के हाथों में लाठियां थीं। लोगों ने कहा कि यह स्थान अपवित्र हो गया है। बाबा साहेब को शाम तक खाली करके चले जाने को कहा गया।  अमेरिकी मूल की भारतीय नागरिक और मशहूर समाजशास्त्री गेल ओमवेट अपनी किताब ‘अम्बेडकर टुवार्ड्स एन एनलाइटेंड इंडिया’ में लिखती हैं कि ”जिस दिन पारसियों को अंबेडकर की जाति के बारे में पता चला, स्थिति गंभीर हो गई। पारसियों के एक क्रोधित समूह ने उन्हें मारने पर आमादा होकर उनके आवास को घेर लिया। घर के मालिक ने तुरंत अंबेडकर को अपने घर से बाहर निकाल दिया।”

राजा ने नहीं उठाए थे कोई ठोस कदम

इसके बाद मजबूरन डॉ अंबेडकर को वो जगह छोड़नी पड़ी थी और काफी मुश्किल से वह जान बचान कर भाग पाने में कामयाब हुए थे. इसके बाद उन्होंने बड़ौदा में ही एक बंगला खरीदने की सोची लेकिन राज्य में मनुवादियों के वर्चस्व को देखते हुए उन्होंने ये फैसला त्याग दिया. 17 नवंबर 1917 को डॉ. अम्बेडकर को अपनी जान बचाने के लिए बड़ौदा राज्य से भागना पड़ा..किसी ने उनकी कोई मदद नहीं की..राज्य के राजा भी बाबा साहेब के साथ खड़े नहीं रहे थे… इसके बाद विदेश से डिग्री लेकर आए डॉ अंबेडकर को नौकरी के लिए दर-दर भटकना पड़ा। विभिन्न सरकारी और निजी संगठनों द्वारा रिजेक्ट किए जाने के बाद, उन्हें सिडेनहैम कॉलेज में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया। यहां उन्होंने दो सालों तक काम किया। इसके बाद वह अपनी पीएचडी पूरी करने के लिए लंदन चले गए थे..

ऐसे में जो भी मनुवादी ये कहते हैं कि एक ब्राह्मण राजा ने अगर मदद न की होती तो डॉ अंबेडकर महान नहीं बनते..तो हमारी यह वीडियो मनुवादियों के इसी वक्तव्य का जवाब है…राजा ने भले ही बाबा साहेब की मदद की लेकिन बदले में उनसे अपने यहां नौकरी करने के लिए कॉन्ट्रैक्ट साइन कराया…जब बाबा साहेब लौट कर आए तो राजा की ओर से छुआछूत के कारण ही उनके रहने की व्यवस्था नहीं की गई. राजा की आंखों के सामने अंबेडकर को फाइलें फेंक कर दी जाती थी और राजा चुप्पी साधे देखते रह जाते थें…जब डॉ अंबेडकर पर पारसियों ने हमला किया तो राजा ने उनकी मदद के लिए कोई कदम नहीं उठाए..ऐसे में ये ब्राह्मण राजा, दलितों के कितने हितैषी थे..इसकी प्रमाण देने की आवश्यता नहीं है.

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