अश्लीलता पर रघुनाथ धोंडो कर्वे का वह केस, जिसे डॉ. अंबेडकर ने दम-खम से लड़ा लेकिन…

रघुनाथ धोंडो कर्वे
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“अगर मुझे लगता है कि संविधान का दुरुपयोग हो रहा है, तो मैं इसे जलाने वाला पहला व्यक्ति बनूंगा” संविधान के रचयिता बाबासाहेब अंबेडकर को लोग पूजते हैं…लोग उन्हें कानूनविद मानते हैं, उन्हें ज्ञाता मानते हैं, उन्हें अर्थशास्त्री मानते हैं लेकिन आज भी कई लोग उनके सबसे मजबूत पक्ष यानी उनकी वकालत के बारे में नहीं जानते.अंबेडकर के पास इतनी डिग्रियां थी कि वो चाहते तो देश के किसी भी पद पर अपना दावा पेश कर सकते थे. लेकिन एक ऐसा समय भी था जब अंबेडकर यौन शिक्षा से जुड़ा एक केस हार गए थे और उन्हें 200 रुपये का जुर्माना तक भरना पड़ा था.

यौन मामलों पर लिखना अश्लीलता

बात है 20वीं सदी के शुरुआत की जब महाराष्ट्र के रघुनाथ धोंडो कर्वे अपनी पत्रिका “समाज स्वास्थ्य” के लिए रूढ़िवादियों के निशाने पर रहते थे. कर्वे अपनी पत्रिका में हमेशा ही यौन शिक्षा, परिवार नियोजन, नग्नता, नैतिकता जैसे उन विषयों पर लिखना पसंद करते थे, वो भी उस दौर में जब भारतीय समाज में ऐसी बातों का जिक्र करना भी पाप समझा जाता था. स्वस्थ यौन जीवन और इसके लिए चिकित्सा सलाह पर केंद्रित अपनी पत्रिका में कर्वे ने इस संवेदनशील मुद्दे पर निडरता पूर्वक चर्चा की. वो तर्कसंगत और वैज्ञानिक बातें लिखते रहे. रुढ़िवादियों की नाराजगी की परवाह किये बिना वो लिखते और उनसे लड़ते गए.

लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि तब भारत का सामाजिक और राजनीतिक ढांचा इतना मजबूत नहीं था कि वो कर्वे का पक्ष ले सकता. और ऐसे में बाबा साहेब अंबेडकर कर्वे के लिए मसीहा बन कर सामने आए और उनके लिए अदालत में वकालत की. यह भारत के सामाजिक सुधारों के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण क़ानूनी लड़ाईयों में से एक है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ा गया था…

1931 में कर्वे को पहली बार उनके लेख ‘व्यभिचार के प्रश्न’ के चलते रूढ़िवादियों ने कोर्ट में घसीटा, जिसमे गिरफ्तारी के बाद उन्हें 100 रुपये का जुर्माना देना पड़ा था. हालांकि, उन्होंने उच्च न्यायालय में भी अपील की लेकिन मामले के सुनवाई कर रहे जज इन्द्रप्रस्थ मेहता ने उनकी अपील को खारिज कर दिया था. और एक बार फिर साल 1934 में कर्वे गिरफ्तार हुए क्योंकि ‘समाज स्वास्थ्य’ का उनका गुजराती संस्करण गुजरातियों को रास नहीं आया था. सवाल सिर्फ हस्तमैथुन और समलैंगिकता के विषय में थे, जिसका कर्वे ने खुलकर उत्तर दिया था. तब समाज में इस तरह की बातें करना अश्लील माना जाता था. लेकिन इस बार कर्वे अकेले नहीं थे.

तब मुंबई के एक सधे हुए वकील बैरिस्टर बीआर आंबेडकर उच्च न्यायालय में उनके लिए लड़ने को तैयार थे. यह वही समय था जब बाबासाहेब पुना पैक्ट और गोलमेज सम्मेलन में भाग ले चुके थे. बॉम्बे हाई कोर्ट में मामले की दलील 28 फरवरी से 24 अप्रैल 1934 के बीच न्यामूर्ति मेहता के सामने रखी गई. कर्वे के ख़िलाफ़ मुख्य आरोप यौन मुद्दों पर सवालों के जवाब देकर अश्लीलता फैलाना था.

कोर्ट में न्यायाधीश ने कर्वे से पूछा कि हमें इस तरह के विकृत प्रश्नों को छापने की आवश्यकता क्यों है और यदि इस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं तो उनके जवाब ही क्यों दिये जाते हैं? ? इस पर आंबेडकर ने कहा कि विकृति केवल ज्ञान से ही हार सकती है. इसके अलावा इसे और कैसे हटाया जा सकता है?

व्यभिचार के प्रश्न

इसे लेकर अंबेडकर का पहला तर्क यह था कि अगर कोई यौन मामलों पर लिखता है तो इसे अश्लील नहीं कहा जा सकता. हर यौन विषय को अश्लील बताने की आदत को छोड़ दिया जाना चाहिए. अंबेडकर ने अदालत में इस विषय पर आधुनिक समाज में उपलब्ध साहित्य और शोध का उल्लेख भी किया.समलैंगिकों पर हेवलॉक एलिस के शोध का हवाला देते हुए अंबेडकर का मानना था कि कि यदि लोगों में इस तरह की इच्छा होती है तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. उन्हें अपने तरीक़े से खुशी हासिल करने का अधिकार है. सबसे खास बात ये थी कि अंबेडकर दो अधिकारों पर बिल्कुल दृढ़ थे, उसमें से पहला था यौन शिक्षा का अधिकार. वो इसके ख़िलाफ़ किसी धार्मिक रूढ़िवादी विचार को नहीं आने देना चाहते थे. और दूसरा अधिकार था – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता..बाबा साहेब अंबेडकर इस बात से सहमत नहीं थे कि यदि समाज का कोई वर्ग किसी खास विषय पर कोई बात नहीं सुनना चाहता या पसंद नहीं करता है तो किसी और को ऐसा करने की अनुमति नहीं है. उदारवादी रवैया अपनाते हुए उन्होंने दृढ़ता से कहा था कि जब हम सभी मुद्दों पर खुल कर बहस और चर्चा करेंगे तभी समाज से विकृतियां जायेंगी, ज्ञान ही इसका एकमात्र जरिया है.

हालांकि, आर डी कर्वे और डॉक्टर बी आर आंबेडकर 1934 की वो लड़ाई अदालत में हार गये. अश्लीलता के लिए कर्वे पर एक बार फिर 200 रुपये का जुर्माना लगाया गया. लेकिन ऐसी लड़ाईयां वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करती हैं और उनका प्रभाव परिणाम से परे है.

हालांकि, बाबासाहेब की स्थिति केवल अदालत में तर्कों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि यह उनके राजनीतिक कामों में भी दिखा. कर्वे ने अपने लेखन के माध्यम से परिवार नियोजन की जरूरत पर जोर दिया और आंबेडकर ने एक सांसद के रूप में इसे क्रियान्वित किया. अंबेडकर 1937 में तत्कालीन बंबई क्षेत्रीय सभा में परिवार नियोजन पर एक बिल लाये. इस विषय पर उनका विस्तृत भाषण उपलब्ध हैं.

 

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