बाबा साहेब जैसे महान शख्स का जीवन G से भरा रहा. जीवन के हर पड़ाव पर उन्हें मुश्किलें झेलनी पड़ी. दलितों की स्थिति के खिलाफ उनके संघर्ष की कहानी भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है. दलितों के अधिकार की लड़ाई लड़ने में बाबा साहेब ने अपना जीवन खपा दिया. हिंदू धर्म में मनुवादी मानसिकता के खिलाफ उनकी लड़ाई के उदाहरण दिए जाते हैं. मनुवादी मानसिकता के खिलाफ लड़ाई में एक समय ऐसा भी आया था जब बाबा साहेब को रामनवमी के रथ में हाथ नहीं लगाने दिया गया.
दलितों के साथ भेदभाव और शोषण
बाबा साहेब शुरु से ही हिंदू धर्म में दलितों से भेदभाव और शोषण के खिलाफ लड़ रहे थे. वह हिंदू धर्म में ब्राह्मणों के विशेषाधिकार के खिलाफ थे. उनका संघर्ष ब्राह्मणों से था क्योंकि हिंदू धर्म में इनके विशेषाधिकार ने ही चीजें खराब कर रखी थी. दलितों को समान अधिकार दिलाने के लिए बाबा साहेब ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर 2 मार्च 1930 को नासिक शहर में एक ऐसा जुलूस निकाला, जैसा जुलूस उससे पहले कभी नहीं निकला था. बाबा साहेब की अध्यक्षता में एक सभा का आयोजन किया गया था और उसी सभा में जुलूस निकालने का फैसला लिया गया. इस जुलूस को 15 हजार दलितों के साथ 1 किलोमीटर तक चलना था.
श्रीराम के नारे लगाते हुए यह जुलूस निकला और मंदिर के पास पहुंचा. लेकिन मंदिर पहुंचने के बाद बाबा साहेब को निराशा हाथ लगी क्योंकि उन्हें मंदिर के दरवाजे बंद मिले. जिसके बाद वह जुलूस गोदावरी नदी के किनारे गया और वहां फिर से एक सभा का आयोजन किया गया. उस सभा में यह निर्णय लिया गया कि दलित समुदाय के लोग दूसरे दिन मंदिर में प्रवेश करेंगे लेकिन दूसरे दिन भी यह संभव नहीं हो पाया. अब इस जुलूस ने आंदोलन का रुप ले लिया और यह आंदोलन पूरा महीना चलता रहा.
दोनों पक्षों में भिडंत
9 अप्रैल 1930 को रामनवमी का त्योहार था. जब मंदिर में जाने की योजना सफल नहीं हुई तो बाबा साहेब के नेतृत्व में यह निर्णय लिया गया कि दलित रामनवमी के रथ में हाथ लगाएंगे…अन्य हिंदुओं की भांति वे भी राम का रथ खीचेंगे. बाबा साहेब अपने कार्यकर्ताओं के साथ मंदिर के पास पहुंच गए. लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा दलितों के वहां पहुंचते ही मनुवादी रथ लेकर भाग गए. दोनों पक्षों में भिडंत भी हो गई और दलितों पर पत्थरबाजी भी हुई. इसमें एक दलित युवक की मौत हो गई और काफी लोग जख्मी भी हुए थे. बाबा साहेब ने ये सारी बातें बॉम्बे प्रांत के ब्रिटिश गवर्नर फ्रेडरिक साइक्सको को पत्र में लिख कर बताई थी.
इसके बाद भी यह आंदोलन चलता रहा. मंदिर वाली घटना के बाद दलितों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. उनके बच्चों के लिए स्कूल बंद कर दिए गए. यहां तक कि कोई उन्हें समान तक नहीं देता था. इन सभी संघर्षों के बीच भी आंदोलन जारी रहा. इसी बीच बाबा साहेब को गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन जाना पड़ा. उनकी गैरहाजरी में भाऊराव गायकवाड़ ने यह संघर्ष जारी रखा. यह आंदोलन करीब 5 सालों तक चला और दलितों ने मंदिर में प्रवेश के लिए सारी तरकीब अपना लिए लेकिन आजादी के बाद तक दलितों को मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार नहीं मिला. अभी भी देश के कई हिस्से में दलित समुदाय के लोग मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते. कई मामले ऐसे आते हैं जब किसी दलित ने मंदिर में प्रवेश कर लिया तो उसके बाद मंदिर का शुद्धिकरण किया जाता है. ऐसे में आजादी के 76 सालों बाद आप देश में दलितों की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं.